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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः ૧૦૨ समान प्रमाण संपल अधिक निग्रहस्थानका समर्थन करते समय तुम्हारे द्वारा उठायी गयी अनवस्था के में भी अनवस्था दोष होगा । क्योंकि निश्चित किये जा चुके पदार्थके पुनः पुनः निर्णय करने के ढिये उत्तरोत्तर अनेक प्रमाणोंका ढूंढना बढता ही चला जायगा । ऐसी दशामें तुम नैयायिक भला " प्रमाण संप्लबको " कैसे स्वीकार कर सकते हो ! यदि पुनर्बहूपायप्रतिपत्तिः दार्व्यमेकत्र भूयसा प्रमाणानां प्रवृत्तौ संवादसिद्धिश्चेति मतिस्तदा हेतुना दृष्टांतन वा केनचिदज्ञापितेर्थे द्वितीयस्य हेतोर्डष्टांतस्य वा वचनं कथमनर्थकं तस्य तथाविधदात्वात् । न चैवमनवस्था, कस्यचित्क्वचिन्निराकांक्षतोपपत्तेः प्रमाणांतरवत् । 1 यदि फिर तुम्हारा यह मन्तव्य होवे कि इप्तिके बहुतसे उपायोंकी प्रतिपत्ति हो जाना दृढपना है । तथां एक विषयमें बहुत अधिक प्रमाणोंकी प्रवृत्ति हो जानेपर पूर्वज्ञान में सम्वादकी सिद्धि हो जाती है । सम्बादी ज्ञान प्रमाण माना गया है । अतः हमारे यहां प्रमाणसंप्लव सार्थक है । तब तो हम जैन कहेंगे कि प्रकरणमें एक हेतु अथवा किसी एक दृष्टान्तकरके अर्थकी ज्ञप्ति करा चुकने पर पुनः दूसरे हेतु अथवा दूसरे दृष्टान्तका कथन करना भला क्यों व्यर्थ होगा ! क्योंकि उस दूसरी, तीसरी बार कहे गये हेतु या दृष्टान्तोंको भी तिस प्रकार दृढतापूर्वक प्रतिपत्ति करा देना घट जाता है । बहुतसे उपायोंसे अर्थकी प्रतिपत्ति पक्की हो जाती है और अनेक हेतु और दृष्टांतोंके प्रवर्तनेपर पूर्वज्ञानोंको सम्वादकी सिद्धि हो जानेसे प्रमाणता आ जाती है। यहां कोई नैयायिक यों कटाक्ष करे कि उत्तर उत्तर अनेक हेतु या बहुतसे दृष्टान्तोंको उठाते उठाते अनवस्था हो जायगी, आचार्य कहते हैं कि सो तो नहीं कहना। क्योंकि किसी न किसी को कहीं न कहीं आकांक्षा रहितपना सिद्ध हो जाता है। चौथी, पांचवी, कोटिपर प्रायः सबकी जिज्ञासा शान्त हो जाती है । प्रमाणसं प्रववादियोंको या सम्वादका उत्थान करनेवालों को भी अन्य प्रमाणोंका उत्थापन करते करते कहीं छठवीं, सातवीं, कोटिपर निराकांक्ष होना ही पडता है । उसीके समान यहां भी अधिक 1 हेतु या दृष्टान्तों में अनवस्था नहीं आती है। अतः अधिकको निग्रहस्थान मानना सुमुचित प्रतीत नहीं होता है । कथं कृतकत्वादिति हेतुं क्वचिद्वदतः स्वार्थिकस्य कप्रत्ययस्य वचनं यत्कृतकं तदनित्यं दृष्टमिति व्याप्तिं प्रदर्शयतो यत्तद्वचनमधिकं नाम निग्रहस्थानं न स्यात्, तेन विनापि तदर्यप्रतिपत्तेः । "" अधिक कथन करनेको यदि वक्ताका निग्रहस्थान माना जायगा तो किसी स्थळपर " शद्बोऽनित्यः कृतकत्वात् इस अनुमानमें कृतत्वात् के स्थान में स्वार्थवाचक प्रत्ययको बढाकर कृतकत्वात् ” इस प्रकार हेतुको कह रहे वादीके द्वारा कृतके निज अर्थको हां कहनेवाली 66
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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