SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 416
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४.४ तस्वार्थ लोकवार्तिके स्वार्थिक क प्रत्ययका कथन करना वादीका “ अधिक " निग्रहस्थान क्यों नहीं हो जावेगा ! तथा उक्त अनुमानमें जो जो कृतक होता है, वह वह पदार्थ अनित्य देखा गया है, इस प्रकार व्याप्ति का प्रदर्शन करा रहे वादीके द्वारा यत् और तत् यानी जो जो वह वह शब्दका वचन करना भला उस वादीका अधिक नामक निग्रहस्थान क्यों नहीं हो जावेगा ! क्योंकि उन यत् तत् शवोंके कथन बिना भी उस व्याप्तिप्रदर्शनरूप अर्थकी प्रतिपत्ति हो जाती है। यानी कृतक पदार्थ अनित्य हुआ करता है । इतना कहना ही व्याप्तिप्रदर्शन के लिये पर्याप्त है। ___सर्वत्र वृत्तिपदपयोगादेव चार्थप्रतिपत्तौ संभाव्यमानायां वाक्यस्य वचनं कमर्थ पुष्णाति ? येनाधिकं न स्यात् । ___ सभी स्थानोंपर कृदन्त, तद्धित, समास, आदि वृत्तियोंसे युक्त हो रहे पदोंके प्रयोगसे ही अर्यकी प्रतिपत्ति होना सम्भव हो रहा है तो खण्डकर वाक्यका वचन करना भला किस नवीन अर्थको पुष्ट कर रहा है ! जिससे कि अधिक निग्रहस्थान नहीं होवे । अर्थात्-" इत्वरी" इस प्रकार कृदन्त घुपदसे जब कार्य निकल सकता है, तो परपुरुषगमनका स्वभाव रखनेवाली पुंश्चली स्त्री यह लम्बा वाक्य क्यों कहा जाता है ? " स्थाष्णु” से कार्य निकल सकता है तो स्थिति शील क्यों कहा जाता है । या " दाक्षि" इस लघुपदके स्थानपर दक्षका अपत्य नहीं कहना चाहिये । " धर्म्य" के स्थानपर धर्मसे अनपेत हो रहा है, यह वाक्य नहीं बोलना चाहिये । क्योंकि अधिक पडता है । तथा " उन्मत्तगंगं" के स्थानपर जिस देशमें गंगा उन्मत्त हो रही है, यह वाक्य कुछ भी विशेषता नहीं रखता । " शाकप्रिय " के बदले जिस मनुष्यको शाक प्यारा है, इस वाक्यका कोई नया अर्थ नहीं दीखता है । पितरौ इस शब्दकी अपेक्षा " माता पिता हैं" इस वाक्यका अर्थ अतिरिक्त नहीं है । किन्तु शब्दोंकी भरमार अधिक है । अतः वक्ताको अधिक निग्रहस्थान मिलना चाहिये। तथाविधवचनस्यापि प्रतिपत्त्युपायत्वान्न निग्रहस्थानमिति चेत्, कथमनेकस्य हेतो. दृष्टांतस्य वा प्रतिपत्त्युपायभूतस्य वचनं निग्रहाधिकरणं ? निरर्थकस्य तु वचनं निरर्थकमेव निग्रहस्थानं न्यूनवन पुनस्ततोन्यत् । ___ यदि आप नैयायिक यों कहें कि तिस प्रकार स्वार्थिक प्रत्ययों या पदोंका खण्ड खण्ड करते हुये वाक्य बनाकर कथन करना भी प्रतिपत्तिका उपाय है। अपनी उत्पत्तिमें अन्य कारणोंकी अपेक्षा रखनेवाळे भावको कृतक कहते हैं । जिस पुरुषने कृतक ही शब्दका उक्त अर्थके साथ संकेत ग्रहण किया है, उस पुरुषके लिये कृत शद्वका उच्चारण नहीं कर कृतक शब्दका प्रयोग करना चाहिये, जो स्थूळ बुद्धि श्रोता कठिनवृत्ति पदोंद्वारा अर्थप्रतिपत्ति नहीं कर सकते हैं, उनके प्रति खण्ड वाक्यों का प्रयोग करना उपादेय है । अतः वे अधिक कथन तो निग्रहस्थान नहीं है।
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy