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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः प्रतिदृष्टांतरूपेण प्रत्यवस्थानमिष्यते । प्रतिदृष्टांततुल्येति जातिस्तत्रैव साधने ॥ ३६४ ॥ क्रियाहेतुगुणोपेतं दृष्टमाकाशमक्रियं । क्रियाहेतुगुणो व्योम्नि संयोगो वायुना सह ॥ ३६५॥ संस्कारापेक्षणो यद्वत्संयोगस्तेन पादपे। स चायं दूषणाभासः साधनाप्रतिबंधकः ॥ ३६६ ॥ साधकः प्रतिदृष्टांतो दृष्टातोपि हि हेतुना । तेन तद्वचनाभावात् सदृष्टांतोस्तु हेतुकः ॥ ३६७ ॥ प्रतिदृष्टान्तसमा जातिका लक्षण यों है कि वादीद्वारा कहे गये दृष्टान्तके प्रतिकूळ दृष्टान्तस्वरूपकरके प्रतिवादीद्वारा जो दूषण उठाया जाता है, वह प्रतिदृष्टान्तसमा जाति इष्ट की गयी है। उसका उदाहरण यों है कि उस ही आत्माके क्रियावत्व साधने में प्रयुक्त किये गये गये दृष्टान्तके प्रतिकूल दृष्टान्तकरके दूसरा प्रतीवादी प्रत्यवस्थान देता है कि क्रियाके हेतुभूत गुणके युक्त हो रहा आकाश तो निष्क्रिय देखा गया है । उस ही के समान पात्मा भी क्रियारहित हो जाओ। यदि यहां कोई पण्डित उस प्रतिवादीके ऊपर यो प्रश्न करे कि क्रिया करानेका हेतु हो रहा, फिर आकाशका ( में ) कौनसा गुण है ! बतायो तो सही । प्रतिषादीकी ओरसे उक्त प्रश्नका उत्तर यों है कि वायुके साथ आकाशका जो संयोग है, वह क्रियाका कारण गुण है । जैसे कि वेग नामक संस्कारको अपेक्षा रखता हुआ, वृक्षम वायुका संयोग क्रियाका कारण हो रहा है। उसी " वायुबनस्पतिसंयोग" के समान वायु माकाशका संयोग है। संयोग द्विष्ठ होता है। अतः बाकाशमें ठहर गया । बतः नाकाशके समान आत्मा क्रियाहेतु गुणके सद्भाव होनेपर भी क्रियारहित हो जायो। अब सिद्धान्ती कहते हैं कि यह प्रतिवादीका कथन तो दूषणाभास है। क्योंकि वादीके क्रियावत्व साधनेका कोई प्रतिबन्धक नहीं है। प्रतिदृष्टान्तको कहनेवाळे प्रतिवादीने भी कोई विशेष हेतु नहीं कहा है कि इस प्रकार करके मेरा प्रतिदृष्टान्त तो निष्क्रियत्वका साधक है चोर वादीका दृष्टान्त सक्रियत्वका साधक नहीं है। प्रतिदृष्टान्त हो रहा आकाश यदि निक्रियत्वका साधक माना.जायगा तो वादीका डेल दृष्टान्त भी उस क्रियाहेतुगुणाश्रयत्व हेतुसे सक्रियस्वका साधक हो जावेगा। ऐसी दशामें उस प्रतिदृष्टान्तके निरूपणका अभाव हो जानेसे वह डेल दृष्टान्त ही हेतुरहित हो जाओ। अर्थात्-प्रतिदृष्टान्त जैसे हेतुके विना ही स्वपक्षका साधक है, अन्यथा अनवस्था होगी, तैसे शान्त डेछ भी क्रियावत्वका स्वतःसाधक है। अतः महरेक ही प्रतिवादीका भी रष्टान्त हो जामो 62
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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