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________________ १८८ तत्वार्यश्लोकवार्तिके एवं हि प्रत्यवस्थानं न युक्तं न्यायवादिनां । वादिनोर्यत्र वा साम्यं तस्य दृष्टांततास्थितिः ॥३६१ ॥ यथारूपं दिदृक्षूणां दीपादानं प्रतीयते । स्वयं प्रकाशमानं तु दीपं दीपांतराग्रहात् ॥ ३६२ ॥ तथा साध्यप्रसिद्धयर्थं दृष्टांतग्रहणं मतं । प्रज्ञातात्मनि दृष्टांते त्वफलं साधनांतरम् ॥ ३६३ ॥ अब प्रसंगसमा जातिको कहते हैं कि वादीने जिस प्रकार साध्यका साधन कहा है, वैसे ही साधनका भी साधन करना या दृष्टान्तकी भी सिद्धि करना वादीको कहना चाहिये, इस प्रकार तो प्रतिवादी द्वारा जो प्रसंगका कथन किया जाता है, प्रसंगपनेको प्राप्त हुयी वह प्रसंगसमा जाति है। उसका उदाहरण यों है कि क्रियाके हेतुभूत गुणोंका सम्बन्ध रखमेवाला डेल क्रियावान् किस हेतुसे माना जाता है ! बताओ । दृष्टान्तकी भी साध्यसे विशिष्टपने करके प्रतिपत्ति करनेमें वादीको हेतु काना चाहिये । उस हेतुके बिना तो किसी भी प्रमेयकी व्यवस्था नहीं हो सकती है। अब न्यायसिद्धान्ती इस प्रतिवादीके कथनका असमीचीन उत्तरपना बताते हैं कि न्याय पूर्वक कहनेकी टेव रखनेवाले पण्डितोंको इस प्रकार दूषण उठाना तो युक्त नहीं है। कारण कि जिस पदार्थमें वादी अथवा प्रतिवादियों के विचार सम होते हैं, उसको दृष्टान्तपना प्रतिष्ठित किया जाता है । और प्रसिद्ध दृष्टान्तकी सामर्थ्यसे वादी द्वारा प्रतिवादीके प्रति असिद्ध हो रहे साध्यकी ज्ञप्ति करा दी जाती है । जैसे कि रूप या रूपवान्का देखना चाहनेवाले पुरुषोंको दीपक, बालोक आदिका ग्रहण करना प्रतीत हो रहा है । किन्तु स्वयं प्रकाशित हो रहे प्रदीप आदिका देखना चाइनेवाले पुरुषोंको पुनः उसके लिये अन्य दीप. कोंका ग्रहण करना नहीं देखा गया है। तिस ही प्रकार अज्ञात हो रहे साध्यकी प्रसिद्धिके लिये दृष्टान्तका ग्रहण माना गया है। किन्तु जिस दृष्टान्तका बात्मस्वरूप सबको भले प्रकार ज्ञात हो चुका है, उसको अन्य साधनोंसे साधना तो व्यर्थ है । यहां आत्माके क्रियासहितपन साध्यकी सिद्धि करानेके लिये प्रसिद्ध डेलका दृष्टान्तरूपसे ग्रहण किया था। किन्तु फिर उस डेळकी सिद्धि के लिये ही तो अन्य ज्ञापक हेतुओंका वचन करना आवश्यक नहीं है। वादी प्रतिवादी दोनोंके समानरूपसे अविवादास्पद दृष्टान्तको दृष्टान्तपना उचित है। उसके लिये अन्य हेतु उठाना निष्फल है। "प्रदीपादानप्रसङ्गनिवृत्तिवत्तद्विनिवृत्तिः " इस न्यायसूत्रके भाष्यमें उक्त अभिप्राय ही पुष्ट किया गया है।
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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