________________
(8)
काळांतरभावापबहुत्वैश्व' सूत्रपर्यंत सम्यग्दर्शनका स्वरूप, उत्पत्ति व मेद, तत्वोंका विशदरूप और तत्वज्ञानके उपायोंका विशद दर्शन कराया है। इस तरह द्वितीय खंड में केवळ सात सूत्रोंका और द्वितीय आन्हिकतक आठ सूत्रोंका विवेचन आ गया है।
,
1
तृतीय खंड -तीसरे खंड में सम्यग्ज्ञानका प्रकरण चालू हो गया है। नौवें सूत्रसे लेकर २० में सूत्रतका विवेचन तीसरे खंड में आ चुका है । सम्यग्ज्ञानका स्वरूप, सम्यग्ज्ञानके भेद, मतिज्ञान और श्रुतज्ञानका विवेचन उक्त खंडमें किया गया है। ज्ञान सामान्य प्रत्येक जीवको होनेपर भी सम्यग्दर्शन जबतक नहीं होता है, तबतक वह ज्ञान सम्यग्ज्ञान नहीं कहलाता है । सम्यग्ज्ञान हुए बिना इस आमाको आत्मसिद्धि नहीं हो सकती है । सम्यग्ज्ञानरहित चारित्र भी सम्यक्चारित्र नहीं कहला सकता । अतः सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति होना अत्यंत आवश्यक है। इस प्रकरणमें ज्ञानको मतिश्रुत अवधिः मन:पर्यय और केवलज्ञानके रूपमें विभक्त कर उनको प्रत्यक्ष और परोक्षप्रमाण के रूप में विवेचन किया है । इन ज्ञानोंके प्रामाण्य के संबंध में तार्किकचूडामणि विद्यानंदस्वामीने अकाट्य युक्तियों द्वारा जो विवेचन किया है, उसे देखकर विद्वरसंसार दंग रह जायगा । विषयके विवेचन में विविध मतका परामर्श किया है । और उन्ही के ग्रंथोक्त प्रमाणोंसे विषयको उनके गले उतारनेका चातुर्य दिखाया गया है । इस तरह तृतीय खंडमें २० सूत्रतक के प्रमेयोंका प्रतिपादन किया गया है। चतुर्थखंड - प्रस्तुत चतुर्थ खंड 'भवप्रत्ययो वधिर्देवनारकाणाम्' इस अवधिज्ञानविषयक सूत्रसे प्रारंभ हो जाता है | ग्रंथकारने अवधि और मन:पर्यय ज्ञान, उनका स्वरूप, भेद, एवं केवलज्ञान के संबंध में प्रतिमापूर्ण विवेचन किया है। साथ ही कुमति, कुश्रुत और विभंगज्ञानका विवेचन कर नयों के संबंध में विस्तृत विवेचन किया है । इस प्रकरणमे आचार्यने अवधिज्ञानकी उत्पत्तिमे अन्तरंग और बहिरंग कारणोंका सुन्दर विचार कर निमित्त और उपादानपर यथेष्ट प्रकाश डाला है । उसी प्रकार अनंतर अवधिज्ञानके मेदोंका विस्तारपूर्वक निरूपण कर अन्यत्र उल्लिखित सर्वमेद इन्ही भेदोमें अंतर्भूत होते हैं, इस बातका सयुक्तिक निरूपण किया है । तदनन्तर मन:पर्यय ज्ञानका, स्वरूप, भेद और उनमें जो विशेषता है, उसका विशद प्रतिपादन किया है । इसके बाद मतिश्रु तादि ज्ञानोंका विषयनियम बतलाते हुए आचार्य महाराजने उनको आगमके प्रकाशमें तर्क और युक्तिसे प्रतिष्ठित किया है । केवलज्ञानके विषयनिबंधको 'सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य' सूत्रके द्वारा प्रतिपादन करते हुए ग्रंथकारने सर्वज्ञकी सुसंगत व्याख्या की है । केवलज्ञानमे सर्व द्रव्यपर्याय झलकती हैं। एक भी पर्याय या पदार्थ के छूटनेपर सर्वज्ञता नहीं बन सकती है । यहां मीमांसक मतका खूब परामर्श कर साकल्यरूपसे सर्वसिद्धि की है । नास्तिक और मीमांसकोंके द्वारा उठाई गई अनेक शंकाएं एवं उनके द्वारा प्रयुक्त हेतुको सदोष सिद्ध कर महर्षिने अल्पज्ञ के ज्ञानको सावरण और सर्व ज्ञानको निरावरण सिद्ध किया है । आवरणोंकी सर्वथा हानि होनेपर विशद, सकल, और युगपत् प्रत्यक्षज्ञान प्राप्त होता है । वही केवलज्ञान है। वहीं पर सर्वज्ञता है । इस प्रकरणके बाद एक जीव में एक साथ कितने ज्ञान हो सकते हैं, इसका विवेचन किया गया है। छद्मस्थ जीवोंके एक
/