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तत्त्वार्थकोकबार्तिके
यिकों ) ने उपदेश किया है। आचार्य कह रहे हैं कि वे सोलह भी पदार्थ द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय इस प्रकार वैशेषिकों द्वारा माने गये छह भाव तत्त्वोंसे न्यारी जातिवाले नहीं समझे जा रहे हैं । पंडित विश्वनाथ पंचाननका भी यही अभिप्राय है । वैशेषिकोंने गुणवान् या समवायिकारण हो रहे पदार्थको द्रव्य माना है । पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिक, आत्मा, मन, ये द्रव्योंके नौ भेद हैं। जैनसिद्धान्त अनुसार “ द्रव्याश्रयाः निर्गुणा गुणाः " यह गुणका लक्षण निर्दोष है । किन्तु वैशेषिकोंने संयोग और विभागके समवायिकारणपन और असमवायिकारणपनसे रहित हो रहे सामान्यवान् पदार्थमें जो कारणता है, उसका अवच्छेदक गुणत्व माना है। भिन्नत्व निवेशसे द्रव्य और कर्ममें अतिव्याप्ति नहीं हो पाती है । गुणके रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या, परिणाम, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रन्यत्व, स्नेह, शब्द, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, संस्कार ये चौवीस भेद हैं। जो द्रव्यके बाश्रय होकर रहे, गुणवाला नहीं होय, ऐसा संयोग और विभागमें किसी माव पदार्थ की नहीं अपेक्षा रखता हुआ कारण कर्म कहलाता है। उसके उत्क्षेपण, अधक्षेपण, बाकुञ्चन, प्रसारण, गमन ये पांच भेद है। नित्य होता दुभा जो अनेकोंमें समवाय सम्बन्धसे धर्वता है, वह सामान्य पदार्थ माना गया है। उसके परसामान्य और अपरसामान्य दो भेद है । अवसानमें ठहरता हुना, जो नित्य द्रव्योंमें वर्तता है, वह विशेष है। नित्य द्रव्योंकी परस्परमें व्यावृत्ति कराने वाले वे विशेष पदार्थ अनन्त हैं । नित्य सम्बन्धको समवाय कहते हैं। वस्तुतः वह एक ही है। वैशेषिक तुच्छ अमाव पदार्थके प्रागभाव, प्रध्वंसामाव, अत्यंताभाव, अन्योन्याभाव ये चार भेद स्वीकार करते हैं । किन्तु भावोंका प्रकरण होनेसे तुच्छ अभावका यहां अधिकार नहीं है। नैयायिकोंके सोलह पदार्थ तो इन द्रव्य आदि छहमें गर्भित हो ही जाते हैं। ऐसा न्यायवेत्ता विद्वानोंने यथायोग्य इष्ट कर लिया है। तिनमें द्रव्य तो द्रव्यार्थिक नयद्वारा जान लिया जाता है । और गुण, कर्म आदिक तो पर्यायसे न्यारे पदार्थ नहीं हैं। इस बातको हम प्रायः पूर्व प्रकरणोंमें कह चुके हैं। अतः गुण बादिकोंको पर्यायार्थिक नय विषय कर लेगा । तिस कारण उन काणाद, और गौतमीय विद्वानों करके द्रव्य और पर्याये ये दो नय ही अभीष्ट कर देने चाहिये । उन प्रमाण, प्रमेय आदि या द्रव्य, गुण, आदिक विषयोंका उन दो द्रव्य पर्यायोंमें ही अन्तर्भाव हो जाता है। जैसे कि नाम आदिक या द्रव्य, क्षेत्र मादिका द्रव्य और पर्यायोंमें ही गर्भ हो जाना कह दिया गया है। - येण्याहुः। " मूळप्रकृतिरविकृतिर्महदायाः प्रकृतिविकृतयः सप्त । षोडशकश्च विकारो न प्रकृतिन विकृतिः पुरुषः " इति पंचविंशतिस्तत्त्वानीति । तैरपि द्रव्यपर्यायावेवांगीकरणीयौ मूलपकृतेः पुरुषस्य च द्रव्यत्वात्, महदादीनां परिणामत्वेन पर्यायत्वात् रूपादिस्कंधसंतानक्षणवत् । ततो नैगमादिभेदानामेवास्तेि न पुनरपरा नीतयः अपरा नीतिर्येषु त