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तत्त्वार्यचिन्तामणिः
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एव परा नीतयः इति गम्यते, न चैतेषु द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकाभ्यां नैगमादिभेदाभ्यां अपरा नीतिः प्रवर्तत इति तावेव मूलनयौ, नैगमादीनां तत एव जातत्वात् ।
जो भी कपिलमत अनुयायी यों कह रहे हैं कि मूलभूत प्रकृति तो किसीका विकार नहीं है । अर्थात् - प्रकृति किसी अन्य कारणसे उत्पन्न नहीं होती है। और महत्तव आदि सात पदार्थ प्रकृति और विकृति दोनों हैं । अर्थात्- महत्तत्त्व, अहंकार, शद्वतन्मात्रा, स्पर्शतन्मात्रा, रूपतन्मात्रा, रस तन्मात्रा, गन्धतन्मात्रा ये पूर्व पूर्वकारणोंके तो विकार हैं । और उत्तरवर्ती कार्योंकी जननी प्रकृतियां
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। तथा ग्यारह इन्द्रिय और पांच पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, ये सोलह गण विकार ही हैं। क्योंकि इनसे उत्तर कालमें कोई सृष्टि नहीं उपजती है । शद्व तन्मात्रासे आकाश प्रकट होता है । शद्वतन्मात्रा और स्पर्शतन्मात्रा से वायु व्यक्त होती है । शद्वतन्मात्रा, स्पर्शतन्मात्रा और रूपतन्मात्रासे तेजोद्रव्य अभिव्यक्त होता है । शद्वतन्मात्रा, स्पर्शतन्मात्रा, रूपतन्मात्रा और रसतन्मात्रा से जल आविर्भूत होता है । शद्वतन्मात्रा, स्पर्शतन्मात्रा, रूपतन्मात्रा, रसतन्मात्रा और गन्धतन्मात्रा से पृथ्वी उद्भूत होती है । प्रचयके समय अपने अपने कारणोंमें कीन होते हुये सब प्रकृति में तिरोभूत हो जाते हैं । पच्चीसवां तत्र कूटस्थ आत्मा तो न किसीका कारण हो रहा प्रकृति है । और किसीका कार्य भी नहीं है । अतः विकृति भी नहीं है । वह उदासीन, द्रष्टा, भोक्ता, चेतन, पदार्थ है । इस प्रकार सांख्योंने पचसि तत्व स्वीकार किये हैं । प्रकृति आदिके लक्षण प्रसिद्ध हैं। सच पूछो तो उनको भी द्रव्य, पर्याय दो ही पदार्थ स्वीकार कर लेने चाहिये । क्योंकि सत्त्रगुण, रजोगुण, तमोगुणोंकी साम्य अवस्थारूप प्रकृति तत्व और आत्म तत्व तो द्रव्य हैं। अतः द्रव्यार्थिक नयके विषय हो जायेंगे और महत्, अहंकार आदिक तो प्रकृतिके परिणाम हैं । अतः पर्याय हैं । ये तेईस अकेले पर्यायार्थिक नयके विषय हो जायेंगे । जब कि पच्चीस मूलतत्व ही नहीं हैं तो पच्चीस पदार्थोंको जानने के लिये पच्चीस मूळनयोंकी आवश्यकता कोई नहीं दीखती है । जैसे कि बौद्धों के माने गये रूप आदि पांच स्कन्धोंकी परिणमनेवाले परिणामों का क्षणिकपना इन द्रव्य या पर्यायोंसे भिन्न नहीं है। है । और पांच जातिके स्कन्धोंके क्षणिकपरिणाम पर्यायस्वरूप हैं । अतः चल सकता है । सजातीय और विजातीय पदार्थोंसे व्यावृत्त तथा परस्पर में सम्बन्धको प्राप्त नहीं हो रहे किन्तु एकत्रित हो रहे रूपपरमाणु, रसपरमाणु, गन्धपरमाणु, स्पर्शपरमाणु, तो रूप स्कन्ध हैं । सुख, दुःख, आदिक वेदनास्कन्ध हैं । सविकल्पक, निर्विकल्पक, ज्ञानोंके मेद प्रभेद तो विज्ञानस्कन्ध हैं । वृक्ष इत्यादिक नाम तो संज्ञास्कन्ध है । ज्ञानोंकी वासनायें या पुण्य, पापों की वासनायें संस्कारस्कन्ध हैं । ये सब मूळ दो नयोंके ही विषय हैं । तिस कारण से ऊपर कहे गये वे सम्पूर्ण अर्थ नैगम संग्रह आदि नयभेदों के ही विषय हैं । फिर कोई न्यारी नयोंके गढ़नेके लिये दूसरा नया मार्ग निकालना आवश्यक नहीं । कारिकामें पडे हुये " अपरनीतयः इस शब्द का
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संतान या प्रतिक्षण संतान तो द्रव्यस्वरूप दो नयोंसे ही कार्य
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