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तत्वार्ययोकवालिक
अर्थ यह समझा जाता है कि जिन अर्थोंमें दूसरी नीति है वे ही अर्थ मित्र नीतिवाले हैं। किन्तु इन चार, पांच, छह सोलह, पच्चीस, पदार्थोंमें तो नैगम आदि भेदोंको धारनेवाले द्रव्यार्षिक और पर्यायार्थिक दो मूल नयोंसे मिन कोई दूसरी नीति नहीं प्रवर्तती है । इस कारण वे दो ही मूळनय हैं। नैगम आदिक मेद प्रमेद तो उन दो से ही उत्पन्न हो जाते हैं।
तत्र नैगमं व्याचष्टे ।
सूत्रकारद्वारा गिनायी गयीं उन सात नयोंमेंसे प्रथम नैगम नयका व्याख्यान श्री विद्यानन्द स्वामी कहते है
तत्र संकल्पमात्रस्य ग्राहको नैगमो नयः । सोपाधिरित्यशुद्धस्य द्रव्यार्थस्याभिधानतः ॥ १७ ॥
उन दो मूल नयोंके नैगम भादिक अनेक भेद हो जाते हैं । नैगम, संग्रह, व्यवहार तीन तो द्रव्यार्थिक नयके विभाग करनेसे हो जाते हैं । और पर्यायार्थिक नयका प्रकृष्ट विभाग कर देनेसे ऋजुसूत्र शब्द समभिरूढ एवंभूत ये चार मेद हो जाते हैं । अर्थकी प्रधानता हो जानेसे पहिली चार नये अर्थनय है। शेष तीन शब्दनय हैं । द्रव्यार्थिककी अपेक्षा अमेद और पर्यायार्थिककी अपेक्षा मेद हो जानेसे बहुत विकल्पवाळे नय हो जाते हैं । उन सात नयोंमें केवळ संकल्पका प्राहक नैगमनय माना गया है। जो कि अशुद्ध द्रव्यस्वरूप अर्थका कथन कर देनेसे कचित् संकल्प किये गये पदार्थकी उपाधिसे सहित है । सत्त्व, प्रस्थत्व आदि उपाधियां अशुद्ध द्रव्यमें लग रही हैं । भेदविवक्षा कर देनेसे मी अशुद्धता आ जाती है।
संकल्पो निगमस्तत्र भवोयं तत्प्रयोजनः। तथा प्रस्थादिसंकल्पः तदभिप्राय इष्यते ॥ १८ ॥
नैगम शब्दको मव अर्थ या प्रयोजन अर्थमें तद्धितका अण् प्रत्यय कर बनाया गया है। निगमका अर्थ संकल्प है, उस संकल्पमें जो उपजे अथवा वह संकल्प जिसका प्रयोजन होय तैसा यह नैगमनय है । तिस प्रकार निरुक्ति करनेसे प्रस्थ, इन्द्र आदिका जो संकल्प है, वह नैगम नयस्वरूप अभिप्राय इष्ट किया गया है। अर्थात्-कोई पुरुष कुल्हाडी या फरसा लेकर छकडी काटनेके लिये जा रहा है । तटस्थ पुरुष उसको पूंछता है कि आप किसलिये जा रहे हो ! वह तक्षक उस पूंछनेवालेको उत्तर देता है कि प्रस्थ या इन्द्र प्रतिमाके लिये में जा रहा हूं। यद्यपि उस समय एक सेर अन्न नापनेका बर्तन प्रस्थ या इन्द्रप्रतिमा सनिहित नहीं है। किन्तु तक्षकका संकल्प वैसा है । बस, इस संकल्पमात्रको विषय करलेनेसे नैगममय द्वारा प्रस्थ, इन्द्रप्रतिमा,