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तत्वार्थचिन्तामणिः
ज्योतिष्टोम आदिकी भावना करानेवाळे वाक्यों करके अनुष्ठाता पुरुषका याग विषयमें प्रवृत्ति कराना स्वरूप व्यापार भा कैसे भावित किया जायेगा ! और पुरुषव्यापारकरके याग क्रिया करना स्वरूप धातु अर्थ कैसे मावित किया जावेगा ! तथा धातु अर्थ करके चिरकालमें होनेवाला स्वर्ग मामका फल कैसे भावनायुक्त किया जा सकता है ! जिससे कि भावना करने योग्य और भावना करनेवाला तथा भावनाका करण इन रूपोंकरके तीन अंशोंसे परिपूर्ण होती हुई भावनाका विचार किया जाता । अथवा तीन अंशवाली मावना आत्मामें विशेषतया माई जाती रहे । अतः मट्टों द्वारा मानी गयी शदभावना पाक्यका अर्थ सिद्ध नहीं हो पाती है। .
पुरुषव्यापारी भावनेत्यत्रापि पुरुषो यागादिना स्वर्ग भावयतीति कथ्यते । न चैवं धात्वर्थभावना शद्वार्थः स्वर्गस्यासंनिहितत्वात् । प्रतिपादयितृविवक्षाबुद्धौ प्रतिभा. समानस्य शद्वार्थत्वे बौद्ध एव शद्वार्थ इत्यभिपतं स्यात् । तदुक्तं । " वक्तृव्यापारविषयो योर्थो बुद्धौ प्रकाशते । मामाण्यं तत्र शब्दस्य नार्थतखनिबंधनम् ॥” इति म भावनावा. दावतारो मीमांसकस्य, सौगतमवेशानुषंगादिति । . पुरुषका व्यापार भावना है । इस प्रकार भी भट्ट मीमांसकोंका कपन होनेपर यष्टा पुरुष याग भादि करके स्वर्गको भावता है, यह कहा जाता है। किन्तु इस प्रकार धातु अर्थ याग करके भावना किया गया फल तो शब्दका अर्थ नहीं है। क्योंकि शब्दका अर्थ निकटवती होना चाहिये और शब्द बोलते समय स्वर्ग तो सनिहित नहीं है । शब्दके सुनने पीछे न जाने कितने दिन पचात् याग किया जायगा और उसके बहुत दिन पीछे मरनेपर स्यात् स्वर्ग मिल सके । यदि मीमांसक यों कहें कि स्वर्ग भले ही उस समय वहां विद्यमान नहीं होय, फिर भी वक्ताको विवक्षापूर्वक हुई बुद्विमें स्वर्ग प्रतिमास रहा है । अतः बुद्धिमें समिहित हो जानेसे शब्दका वाच्यार्थ स्वर्ग हो सकता है । इसपर आचार्य कहते हैं कि यों तो बुद्धिमें पड़ा हुआ ही अर्थ शब्दका वाच्य अर्थ है, यह अभिमत हुआ । अर्थात-बौद्धोंने विवक्षा आखूढ हो रहे अर्थसे शब्दका वाचकपन माना है। वह बौद्धोंका मत ही माहोंको अभिमत हुआ। बुद्धि के समुदाय अपनेको मान रहे प्रज्ञाकर नामक बौद्धोंने यही बात अपने प्रथमें कही है कि पताके व्यापारका विषय हो रहा जो अर्थ श्रोताको बुदिमें प्रकाश रहा, उस ही अर्यको कहने सम्मको प्रमाणता है। यहां विधमान हो रहे वास्तविक अर्थ-तस्वको कारण मानकर शब्दका प्रामाण्य व्यवस्थित नहीं है। अर्थात-बौद्ध मानते हैं कि वक्ताके पुद्धिसम्बन्धी व्यापारसे जाना जा रहा अर्थ यदि शिष्यकी पुद्धिमें प्रकाशित होगया है, तो उस अंशमें शब्दप्रमाण है । बाघ अर्थ होय या नहीं, कोई बाकांक्षा नहीं । अतः पुरुषमावना सिद्ध नहीं हुई । इस प्रकार मह मीमांसकोंके दोनों भावना वादोंका अवतार होना प्रमाणोंसे सिद्ध नहीं हुषा । क्योंकि बौद्धमतके प्रवेशका प्रसंग हो