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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
यथैव हि चैत्रो धनुर्दर एवेत्यत्रायोगव्यवच्छेदेऽप्यधानुर्द्धर्यस्य व्यवच्छेदो नाबाण्डित्यादस्तस्य तदप्रतियोगित्वात् । किं चैत्रो धनुर्द्धरः किं वायमधनुर्द्धर इति आशंकायां धानुर्येतरयोरेव प्रतियोगित्वाद्धानुर्द्धर्यनियतेनाधानुर्द्धर्य व्यवच्छिद्यते । तथा किमवधिभवप्रत्ययः किं वा गुणप्रत्यय इति बहिरंगकारणयोर्भवगुणयोः परस्परं प्रतियोगिनो शंकायामेकतरस्य भवस्य कारणत्वेन नियमे गुणकारणत्वं व्यवच्छिद्यते । न पुनरवधिजानाधरणक्षयोपशमविशेषः क्षेत्रकालादिवत्तस्य तदप्रतियोगित्वात् ।
__ एवकार तीन प्रकारका होता है। १ अयोगव्यवच्छेद २ अन्ययोगव्यवच्छेद ३ अत्यन्तायोगव्यवच्छेद । इन तीन भेदोंमें प्रथमभेदका उदाहरण यों है कि " पार्थो धनुर्धर एव " अर्जुन योद्धा धनुषधारी ही है। यहां विशेषणके साथ लगे हुये अयोगव्यवच्छेदक एवकार द्वारा धनुष अत्रके अतिरिक्त अन्य अस्त्रशस्त्रोंके धारण करनेका अर्जुनमें निषेध नियम किया गया है। तथा " पार्थ एव धनुर्धरः " यहां विशेषके साथ लगे हुये अन्ययोगव्यवच्छेदक एवकार द्वारा अर्जुनसे अतिरिक्त योद्धाओंमें धनुर्धरपनेका निषेधनियम किया गया है । तीसरे " नीलं सरोजं भवत्येव " यहां क्रियाके साथ लगे हुये अयन्तायोगव्यवच्छेदक एवकार द्वारा नीलकमलके निषेधका निराकरण कर दिया जाता है । यहां प्रकरणमें यह कहना है कि चैत्र विद्यार्थी धनुषधारी ही है । इस प्रयोगमें जिस ही प्रकार अयोगका व्यवच्छेद होनेपर भी चैत्रके धनुर्धारी रहितपनेका ही प्रतिषेध हो जाता है। किंतु बलवान् चैत्रके अपण्डितपन; धनीपन, युवापन आदिका व्यवच्छेद नहीं हो जाता है। क्योंकि उस धनुषधारी चैत्रके वे अपण्डितपन आदिक प्रतियोगी नहीं है । यहां प्रतियोगी तो धनुषधारी रहितपना ही है । देखो, चैत्र क्या धनुषधारी है ? अथवा क्या यह चित्रा स्त्रीका युवा लडका धनुषधारी नहीं है ! इस प्रकार आशंका होनेपर धनुषधारीपन और धनुषरहितपन इन दोनोंका ही प्रतियोगीपना नियत हो रहा है। जब चैत्र धनुषधारी है, इस प्रकार नियम कर दिया गया है, तो उस नियमकरके चैत्रके धनुषधारण नहीं करनेपनका व्यवच्छेद कर दिया जाता है । अर्थात् प्रसिद्ध शस्त्रधारी या मल्ल प्रायः मूर्ख होते हैं, उद्भट विद्वान् नहीं । इस युगमें प्रकाण्ड विद्वत्ताको सम्पादन करनेवालोंके शरीर दुर्बल पड जाते हैं। शास्त्रचिन्तनायें भी एक प्रकारको चिन्तायें ही हैं। इसी प्रकार प्रशस्त विद्वान् धनाढ्य भी नहीं होते हैं । अच्छा तो उसी प्रकार यहां अवधिज्ञानमें समझलो कि अवधिज्ञान क्या भवको कारण मानकर उत्पन्न होता है अथवा क्या गुणको निमित्तकारण लेकर उपजता है ! इस प्रकार बहिरंगकारण हो रहे तथा परस्परमें एक दूसरेके प्रतियोगी हो रहे भव और गुणकी शंका होनेपर पुनः दोनोंमेंसे एक भवका कारणपन करके नियम करदेनेपर देव नारकों के अवधिज्ञानमें गुणको कारणपना व्यवच्छिन्न कर दिया जाता है । किंतु फिर अवधिज्ञानावरणके विशेष क्षयोपशमको कारणपना नहीं निषिद्ध किया जाता है । क्योंकि क्षेत्र, काल, आत्मा, आदिके समान वह क्षयोपशम तो उस भवस्वरूप बहिरंग कारणका प्रतियोगी नहीं है। मृत्यको बाजारसे