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तत्वार्थ श्लोकवार्तिके
कार्यसहिता प्रेरणा नियोग इत्यपरे ।
अपर मीमांसक कहते हैं कि कार्यसे सहित हो रही प्रेरणा नियोग है । अर्थात् — पहिले तृतीय पक्ष कार्यकी प्रधानता थी, अत्र प्रेरणाकी मुख्यता है । दालसहित रोटी, रोटीसहित दाल या गुरुसे सहित शिष्य और शिष्य से सहित गुरु, इनमें जो विशेषणविशेष्य भाव लगाकर प्रधानता और अप्रधानता हो जाती है, उसी प्रकार यहां भी विशेषणको गौण और उससे सहित हो रहे विशेष्यको मुख्य जान लेना चाहिये । ग्रन्थों में लिखा है कि:
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प्रेर्यते पुरुषो नैव कार्येणेह विना कचित् ।
ततश्च प्रेरणा प्रोक्ता नियोगः कार्यसंगता ॥ १०१ ॥
इस जगत् में कोई भी पुरुष कर्तव्यपनेको जाने बिना किसी मी कार्य करनेमें प्रेरित हो रहा नहीं पाया जाता है । तिस कारण से कार्यसे सहित हो रही प्रेरणा ही यहां अच्छा नियोग कही गयी है, यह नियोगका चतुर्थ प्रकार है ।
कार्यस्यैवोपचारतः प्रवर्तकत्वं नियोग इत्यन्ये ।
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अब कोई अन्य मीमांक यों कह रहे हैं कि उपचारसे कार्यका ही प्रवर्तकपना नियोग है । अर्थात्-वेदवाक्यको जो मुख्य प्रेरकपना हैं, वह यागस्वरूप कार्यमें उपचरित हो जाता है । जैसे कि त्रिलोकसारके श्रद्धेय प्रमेयको त्रिलोकसारके पढनेमें छात्र के लिये प्रेरकपना है । किन्तु सुन्दर लिखी हुई त्रिलोकसारकी चित्रित पुस्तक में उपचारसे प्रेरकपना कह दिया जाता है । अतः उपचारसे कार्य ही प्रवर्तक है, यही पांचवां नियोग है ।
प्रेरणाविषयः कार्यं न तु तत्प्रेरकं स्वतः ।
व्यापारस्तु प्रमाणस्य प्रमेय उपचर्यते ॥ १०२ ॥
वही ग्रन्थोंमें लिखा है कि वेदवाक्यजन्य यागानुकूल व्यापारस्वरूप प्रेरणा है। यज्ञ करना, पूजन करना आदि कार्य उस प्रेरणाके कर्तव्य विषय हैं। वह कार्य स्वयं अपने आपसे यष्टाका प्रेरक नहीं है । किन्तु प्रमाणके व्यापारका उपचार प्रमेयमें कर दिया जाता है । कर्तव्य कार्य यदि अधिक प्रिय होता है तो आप्तवचन ( जो कि वस्तुतः उस प्रिय कार्यको कराने में प्रेरणा कर रहा है) को छोडकर कार्य में ही प्रवर्तकपनेके गीत गाये जाते हैं ।
कार्यप्रेरणयोः संबधो नियोग इत्यपरे ।
यागरूप कार्य और प्रेरणाका सम्बन्ध हो जाना नियोग है, यों इतर मीमांसक कह रहे हैं । उनका प्रमाणवचन यह है कि:
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