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तत्त्वायचिन्तामणिः
प्रेरणा हि विना कार्यं प्रेरिका नैव कस्यचित् । कार्यप्रेरणयोर्योग नियोगस्तेन सम्मतः ॥ १०३ ॥
जिस कारण से कि प्रेरणा विचारी कार्यके विना किसी भी पुरुषको प्रेरणा करानेवाली नहीं होती है, तिस कारण कार्य और प्रेरणाका सम्बन्ध हो जाना ही नियोग सम्मत किया गया है। यह छठवां नियोग है ।
तत्समुदायो नियोग इति चापरे ।
उन कार्य और प्रेरणाका समुदाय हो जाना नियोग है । इस प्रकार कोई न्यारे मीमांसक कह रहे हैं, लिखा है कि
परस्पराविनाभूतं द्वयमेतत्प्रतीयते ।
नियोगः समुदायोस्मात्कार्यप्रेरणयोः ॥ १०४ ॥
परस्पर में अविनाभावको प्राप्त होकर मिले हुये कार्य और प्रेरणा दोनों ही एकमएक प्रतीत हो रहे हैं । इस कारण कार्य और प्रेरणाका समुदाय यहां नियोग माना गया है, यह सातवां ढंग है। तदुभयस्वभावनिर्मुक्तो नियोग इति चान्ये ।
उन कार्य और प्रेरणा दोनों स्वभावोंसे विनिर्मुक्त हो रहा नियोग है, इस प्रकार कोई अन्य विद्वान् कह रहे हैं ।
सिद्धमेकं यतो ब्रह्मगतमाम्नायतः सदा ।
सिद्धत्वेन च तत्कार्यं प्रेरकं कुत एव तत् ॥ १०५ ॥
जिस कारण से कि वेदवाक्योंद्वारा सदा जाना जा रहा, एक ब्रह्मतस्व प्रसिद्ध हो रहा
है, कर्मकाण्ड के प्रतिपादक वाक्योंमें भी कार्य और प्रेरणा की नहीं अपेक्षा करके परमात्माका प्रकाश हो रहा है, जब कि परमात्मा अनादिकालसे सिद्ध है, इस कारण वह किसीका कार्य है । भा प्रेरक तो वह कैसे भी नही हो सकता है। अतः कार्य और प्रेरणा इन दोनों स्वभावोंसे रहित नियोग है । नियोगका यह आठवां विधान है ।
Sitafalataश्चित् ।
यंत्र में आरूढ होने के समान याग आदि कार्यमें आरूढ हो जाना नियोग है। इस प्रकार कोई मीमांसक कह रहा है ।