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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः विपर्ययज्ञानस्वरूप इस सूत्रद्वारा निरूपण किया है । ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य समाधान कहते हैं । २०७ इति प्रमाणात्मविबोधसंविधौ विपर्ययज्ञानमनेकधोदितम् । विपक्षविक्षेपमुखेन निर्णयं सुबोधरूपेण विधातुमुद्यतैः ॥ ११६ ॥ इस पूर्वोक्त प्रकार प्रमाणस्वरूप सम्यग्ज्ञानकी भले प्रकार विधि करनेपर विपरीत पक्षके खण्डनको मुख्यतासे समीचीन बोधस्वरूप करके निर्णयको विधान करनेके लिये उद्यमी हो रहे श्री उमास्वामी महाराज करके अनेक प्रकारका विपर्ययज्ञान इस सूत्रद्वारा कह दिया गया है । भावार्थ- पहिले प्रकरणों में किया गया सम्यग्ज्ञानका निरूपण तभी निर्णीत हो सकता है, जब कि उनसे त्रिपरीत हो रहे मिथ्याज्ञानोंका ज्ञान करा दिया जाय । अतः तीनों मिध्याज्ञानोंसे व्यावृत्त हो रहा सम्यग्ज्ञान उपादेय है | चिकित्सक द्वारा दोषोंका प्रतिपादन किये विना रोगी उनका प्रत्याख्यान नहीं कर सकता है । विवक्षित पदार्थ की विधि हो जानेपर गम्यमान भी पदार्थोंकी कंठोक्त व्यावृत्ति करना विशेष निर्णय हो जाने के लिये आवश्यक कार्य है । पूर्व सम्यगवबोधस्वरूपविधिरूपमुखेन निर्णयं विधाय विपक्षविक्षेपमुखेनापि सं विधातुमुद्यतैरनेकधा विपर्ययज्ञानमुदितं वादिनोभयं कर्तव्यं स्वपरपक्षसाधनदूषणमिति न्यायानुसरणात् 1 1 पहिले सम्यग्ज्ञानके स्वरूपका विधिस्वरूपकी मुख्यता करके निर्णय कर पुनः सम्यग्ज्ञानके विपक्ष हो रहे मिथ्याज्ञानोंके निराकरणकी मुख्यता करके भी उस निर्णयको विधान करनेके लिये उद्यमी हो रहे सूत्रकार करके अनेक प्रकारका विपर्ययज्ञान कह दिया गया है । यद्यपि सम्यग्ज्ञानोंकी विधिसे ही मिथ्याज्ञानोंका अनायास निवारण हो जाता है । अथवा मिथ्याज्ञानोंका अकेले निवारण कर देनेसे ही सम्यज्ञानों की परिश्रमके बिना विधि हो जाती है। फिर भी वादीको दोनों कार्य करने चाहिये | अपने पक्षका साधन करना और दूसरों के प्रतिपक्ष में दूषण उठाना इस नीतिका अनुसरण करनेसे ग्रन्थकारने दोनों कार्य किये हैं । अथवा श्री उमास्वामी महाराजने विधि मुख और निषेध मुख दोनोंसे सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञानोंका प्रतिपादन किया है । अतः सिद्ध है कि समीचीनवादी विद्वान्को स्वपक्षसाधन और परपक्षमें दूषण ये दोनों कार्य करने चाहिये । आत्माको शरीर परिमाण साध चुकनेपर भी आत्माके व्यापकपन या अणुपनका खण्डन कर देने से अपना सिद्धान्त अच्छा पुष्ट हो जाता है । तालेको ताली घुमाकर लगा देते हैं । फिर भी खेचकर देख लेनेसे चित्तमें विशेष दृढता हो जाती है। 1
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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