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• तत्वार्थचोकवार्तिके
सम्भावना क्षयोपशम अनुसार बारहवें गुणस्थान तक बतायी गयी है। मानसमतिज्ञान वहां प्रकटरूपसे है। - का पुनरवधिविपर्यय इत्याह ।
शिष्यकी जिज्ञासा है कि फिर अवधिज्ञानका विपर्यय विभंग क्या है ? ऐसी जाननेकी इच्छा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य उत्तर कहते हैं।
भवं प्रतीत्य यो जातो गुणं वा प्राणिनामिह । देशावधिः स विज्ञेयो दृष्टिमोहाद्विपर्ययः ॥ ११४ ॥ सत्संयमविशेषोत्यो न जातु परमावधिः । सर्वावधिरपि व्यस्तो मनःपर्ययबोधवत् ॥ ११५॥
भवको कारण मानकर अथवा क्षयोपशमरूप गुणको कारण मानकर प्राणियोंके उत्पन्न हुई जो देशावधि है, वह यहां दर्शमोहनीय कर्मका उदय हो जानेसे आत्मलाभ कर रही विपर्यय ज्ञान स्वरूप समच लेनी चाहिये । विशिष्ट प्रकारके श्रेष्ठ संयमके होनेपर मुनि महाराजके ही उत्पन्न हुई परमावधि तो कमी विपर्ययपनेको प्राप्त नहीं होती है, जैसे कि मनःपर्यय ज्ञानका विपर्यय नहीं होता है। भावार्थ-चरमशरीरी संयमी मुनिके हो रहे परमावधि और सर्वावधिज्ञान कदाचिद् भी विपरीत नहीं होते हैं और ऋद्धिधारी विशेष मुनिके हो रहा वह मनःपर्यय ज्ञान भी सम्यग्दर्शनका समानाधिकरण होनेसे विपर्यय नहीं होता है । अवधिज्ञानोंमें केवल देशावधि ही मिथ्यात्व या अनग्तानुबन्धी कर्मके उदयका साहचर्य प्राप्त होनेपर विपरीत ज्ञानरूप विभंग हो जाती है ।
___ परमावधिः सर्वावधिश्च न कदाचिद्विपर्ययः सत्संयमविशेषोत्थत्वात् मनापर्ययवदिति देशावधिरेव कस्यचिन्मिथ्यादर्शनाविर्भावे विपर्ययः प्रतिपाद्यते । -
परमावधि और सर्वाबाध तो ( पक्ष ) कमी विपरीत ज्ञानस्वरूप नहीं होती हैं ( साध्य )। अंतीव श्रेष्ठ संयम विशेषवाले मुनियोंमें उत्पन्न हो जानेसे (हेतु) । जैसे कि मनःपर्ययज्ञान ( अन्वयदृष्टान्त ) । इस प्रकार अनुमानद्वारा दो अवधियोंका निषेध कर चुकनेपर शेष रही देशावधि ही किसी जीवके मिथ्यादर्शनके प्रकट हो जानेपर विपर्यय कह कर समझा दी जाती है। .. :
किं पुनः क प्रमाणात्मकसम्यग्ज्ञानविधौ प्रकृते विपर्ययं ज्ञानमनेकधा मत्यादि प्ररूपितं सूत्रकारैरित्याह ।
शिष्य पूछता है कि प्रमाणस्वरूप सम्यग्बानकी विधिका प्रकरण चलता हुषा होनेपर फिर क्या करनेके लिये सूत्रकार श्री उमास्वामी महाराजने मति आदिक तीन बानोंको अनेक प्रकारोंसे