SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 217
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तषार्थचिन्तामणिः . . २.५ विवक्षा प्राप्त अर्थ भी उपचारसे विवक्षा ही है । अतः उस विवक्षामें पडे हुये अर्थके साथ शब्दका कार्यकारणभाव सम्बन्ध विद्यमान हो रहा है। इस कारण शब्द उस विवक्षित अर्थकी विधिको करा देता है । अब आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि गाढरूपसे सोती हुई या मत्त मूछित आदि अवस्थाओंमें विवक्षाके विना मी शब्दकी प्रवृत्ति हो रही देखी जाती है। अतः उस विवक्षाके कार्यपन करके शद्बकी व्यवस्था नहीं है । हकलापन या तोतलेपनकी दशामें कुछ कहना चाहते हैं, और शब्द दूसरा ही मुखसे निकल पडता है । पद्मावतीके कहनेकी विवक्षा होनेपर वत्सराजके मुखसे वासवदत्ता शब्दका निकल जाना, ऐसे गोत्रस्खलन आदिमें विवक्षा और शद्बके अन्वय व्यभिचार और व्यतिरेक व्यमिचार होते हुये देखे जा रहे हैं। श्री अन्ति परमेष्ठीकी दिव्यवाणी विवक्षाके विना खिरती है । अतः शद्वोंका अव्यभिचारी कारण विवक्षा नहीं है । दूसरी बात यह है कि पूर्वके प्रकरणों द्वारा अन्यापोहके एकान्तका भळे प्रकार खण्डन किया जा चुका है। इस कारण अधिक तर्कणा करनेसे क्या प्रयोजन ! । वहाँपर तर्क, वितर्कद्वारा यह निर्णीत हो चुका है कि एकान्तरूपसे अन्यापोहको कहते रहना वाक्यका प्रयोजन नहीं है। शद्वका कारण भी विवक्षा नहीं है। नियोगो भावना धास्वर्थो विधियंत्रारूढादिरन्यापोहो वा यदा कैश्चिदेकांतेन विषयो वाक्यस्यानुमन्यते तदा तजनितं वेदनं श्रुताभासं प्रतिपत्तव्यं, तथा वाक्यार्थनिर्णीतेर्विधातुं दुःशकत्वादिति । ___ नियोग, भावना, शुद्धधात्वर्थ, विधि, यंत्रारूढ, पुरुष आदिक अथवा अन्यापोह, ये एकान्त रूपसे जब कमी वाक्यके द्वारा विषय किये गये अर्थ किन्हीं मतावलम्बियोंकरके स्वसिद्धान्त अनुसार माने जाते हैं, उस समय नियोग आदिको विषय करनेवाले उन वाक्योंसे उत्पन्न हुआ ज्ञान श्रुतशानामात समझना चाहिये । क्योंकि तिस प्रकार उनके मन्तव्य अनुसार वाक्य अर्यका निर्णय करना दुःसाध्य है। अर्थात् -उनके द्वारा माना गया वाक्यका अर्थ प्रमाणोंसे निर्णीत नहीं होता है। अतः वे उस समय कुश्रुतज्ञानी हैं । इस प्रकार मतिज्ञान श्रुतज्ञानोंके आभासोंका वर्णन कर दिया है। कारणविपर्यास, स्वरूपविपर्यास और भेदाभेदविपर्यासको अवलम्बन लेकर हुई अनेक सम्प्रदायोंके अनुसार जीवोंके अनेक कुहान उपज जाते हैं । सम्यग्ज्ञानका अन्तरंग कारण सम्यग्दर्शनके हो जानेपर चौथे गुणस्थानसे प्रारम्भ कर ऊपरके गुणस्थानोंमें विपर्यय ज्ञान नहीं सम्भवता है। हां, कामळ आदि दोषोंसे हये विपर्ययज्ञान तो चौथे गुणस्थानसे ऊपर भी बारहवें तक सम्भव जाते हैं । किन्तु वे सब अन्तरंग कारण सम्यग्दर्शनकी चासनीमें पगे हो रहे होनेसे सम्यग्ज्ञानरूपसे व्यपदेश करने योग्य हैं। यद्यपि उपशम श्रेणीमें और क्षपक श्रेणीमें बहिरंग इन्द्रियोंसे जन्य मतिज्ञानकी प्रवृत्ति प्रकट नहीं है । आत्माकी श्रुतज्ञानरूप ध्यानपरिणति है। फिर भी मतिज्ञानकी
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy