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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः "प्रमाणनयैरधिगमः" 'मतिः स्मृतिः,' 'श्रुतं मतिपूर्व' इत्यादि सूत्रों द्वारा तत्त्वोंकी अधिगति करनेके प्रधान उपाय हो रहे प्रमाणका अबतक अवधारण कराके अब अधिगमके उपाय हो रहे सम्पूर्ण नयोंको संक्षेपसे सूत्रकार महाराज बढिया कह रहे हैं । " प्रमाणनयैरधिगमः " इस सूत्रमें " नयः " कहकर नयोंको भी अधिगमका करण कहा जा चुका है। प्रमाणनयैरधिगम इत्यनेन प्रमाणं नयाश्चाधिगमोपाया इत्युद्दिष्टं । तत्र प्रमाणं तत्त्वार्याधिगमोपायं प्रपंचतो निर्देश्याधुना नयास्तदधिगमोपायानखिलान् संक्षेपतोन्यथा च व्याख्यातुमिदं प्राह भगवान् । कथं ? नयसामान्यस्य तल्लक्षणस्यैव संक्षेपतो विभागस्य विशेषलक्षणस्य च विस्तरतो नयविभागस्य अतिविस्तरतो नयमपंचस्य चात्र प्रतिपादनात् सर्वथा नयप्ररूपणस्य सूत्रितत्वादिति बमहे। ___ " प्रमाणनयैरधिगमः " ऐसे आकारवाळे इस सूत्र करके प्रमाण और नय ये अधिगम करनेके उपाय हैं, इस प्रकार कथन किया गया है। उन अधिगतिके उपायोंमें तत्वार्थोके अधिगमका उपाय हो रहे प्रमाणको विस्तारसे निरूपण कर अब उन तत्वार्थो या उनके अंशोंकी अधिगतिके उपाय हो रहे सम्पूर्ण नयोंको संक्षेपसे और दूसरे प्रकारोंसे यानी विस्तार, अतिविस्तारसे व्याख्यान करनेके लिये इस सूत्रको भगवान् ग्रन्थकार अच्छा कह रहे हैं। किस प्रकारसे ? इस सूत्रमें नयोंका उन तीन प्रकारोंसे प्रतिपादन किया है ! इसके उत्तरमें हम विद्यानन्द आचार्य गौरवसहित यों उत्तर कहते हैं कि प्रथम ही नय सामान्यका एक ही भेद स्वरूप निरूपण और उस नय सामान्यके लक्षणका ही संक्षेपसे प्रतिपादन किया गया है। तथा विभागका अभिप्राय करते हुये नयों के विशेष दो भेद कर उनके लक्षणका और विस्तारके साथ नयोंके विभागका प्रतिपादन किया है । और भी नयोंके विभागका अत्यन्त विस्तारसे नयोंके भेद प्रभेदोंका इस सूत्रमें विस्तृत कथन किया गया है । बात यह है कि प्रकाण्ड पाण्डित्यको धारनेवाले श्री उमास्वामी महाराजने इस उदात्त सूत्र द्वारा सभी प्रकारोंसे नयोंका प्ररूपण वर्णित कर दिया है । " गागरमें सागर " इसीको कहते हैं। एक ही सूत्रमें अपरिमित अर्थ भरा हुआ है। तत्र सामान्यतो नयसंख्या लक्षणं च निरूपयन्नाह । __ तहां प्रथम विचारके अनुसार सामान्यरूपसे नयकी संख्याका और नयके लक्षणका निरूपण करते हुये श्री विद्यानन्द बाचार्य श्री उमास्वामी महाराजके हृय अर्थका स्पष्ट कथन करते हैं। उसको समझिये। सामान्यादेशतस्तावदेक एव नयः स्थितः । स्याद्वादप्रविभक्तार्थविशेषव्यंजनात्मकः ॥२॥
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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