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तत्त्वार्यलोकवार्तिके
सामान्यकी विवक्षा करनेसे तो नय एक ही व्यवस्थित किया गया है चाहे कितने भी पदार्थ क्यों नहीं होवें, सामान्यरूपसे उनका एक ही प्रकार हो सकता है। दो, चार, बादिक नहीं। सामान्य पदार्थ या समान जातिवाळे पदार्थोंमें तिष्ठता दुभा सदृश परिणामरूप सामान्य यद्यपि अनेक व्यक्ति स्वरूप होता हुआ अनेक है, फिर भी सामान्यपना एक है। यहां सामान्यमें उपचारसे रखा गया एकत्व अर्थ प्रधान है। जैसे कि बालकके भाग्रह अनुसार सर्प या सिंहके खिलोनेको हो सर्प या सिंह कहा जाता है । बालकको खेलनेके लिये मुख्य सिंह या सर्पका उन शद्रोंकरके ग्रहण नहीं होता है। तथा अनेक एकोंमें रहनेवाले कई एकत्वोंका एकपना मी उपचरित हो रहा उपादेय है । सम्पूर्ण नयोंमें व्यापनेवाला नयका सामान्य लक्षण तो श्रीसमन्तभद्र आचार्यने आप्तमीमांसा यों कहा है कि " स्याद्वादप्रविभक्तार्थविशेषव्यञ्जको नयः " स्याद्वाद श्रुतज्ञान करके ग्रहण किये गये विशेष विशेषांशोंके विभागसे युक्त हो रहे अर्थोके विशेषको व्यक्त कर देनास्वरूप नय है। प्रमाणसे ग्रहण किये गये अर्थक एक देशको ग्रहण करनेवाला वक्ताका अभिप्राय विशेषनय है। ऐसा अन्यत्र कहा जा चुका है। " स्वार्थंकदेशनिणीति लक्षणो हि नयः स्मृतः " इस प्रकार श्री विद्यानन्द आचार्यने पहिले कहा है। इन सबका तात्पर्य एक ही है।
सामान्यादेशातावदेक एव नयः स्थितः सामान्यस्यानेकत्वविरोधात् । स च स्याद्वादप्रविभक्तार्थविशेषव्यंजको नय इति वचनात् ।
सबसे पहिले सामान्यकी विवक्षासे विचारा जाय तो नय एक ही व्यवस्थित हो रहा है। क्योंकि सामान्यका अनेकपनेके साथ विरोध है । समान पदार्थोका सामुदायिक परिणाम महासत्ताके समान एक हो सकता है । भाव पदार्थका एकपना व्याकरण शास्त्रमें लिया गया है। वह निर्मूलक नहीं है। जैनसिद्धान्त अनुसार सामान्यमें कथंचिद् एकपना अपेक्षाओंसे सिद्ध है। और वह नय तो देवागम स्तोत्रमें यों लक्षणरूपसे कहा गया है कि स्याद्वाद सिद्धान्त द्वारा प्रकृष्टरूपसे जान लिये गये गुण, पर्याय आदि विभाग करके युक्त अर्थके विशेषोंका व्यंजक नय है। अर्थात्-अर्थके विशेष नित्यत्व अनित्यत्व एकत्व, अनेकत्व, आदिको पृथक् पृथक् रूपसे प्रतिपादन करनेवाला नय होता है । अनेक स्वभावोंके साथ तदात्मक हो रहे परिपूर्ण अर्थको जाननेवाला ज्ञान प्रमाण है।
और उस अर्थके अन्य धर्मोकी अपेक्षा रखता हुआ अंशोंको जाननेवाला ज्ञान नय है । तथा अन्य धर्मोका निराकरण करता हुआ अंशमाही ज्ञान कुनय है। "अर्यस्यानेकरूपस्य धीःप्रमाणं तदंशधीः। नयो धर्मान्तरापेक्षी दुर्णयस्तनिराकृतिः " ऐसा अन्यत्र भी कहा गया है।
ननु चेदं हेतोर्लक्षणवचनमिति केचित् । तदयुक्तं । हेतोः स्याद्वादेन प्रविभक्तस्याथस्य सकलस्य विशेष व्यंजयितुमसमर्थत्वादन्यत्रोपचारात् । हेतुजनितस्य बोधस्य व्यंजका प्रधानभावत एव युक्तः। स च नय एव स्वार्थकदेशव्यवसायात्मकत्वादित्युक्तम् ।