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तस्वार्थचिन्तामणिः
एकतः कारयेत्सभ्यान वादिनामेकतः प्रभुः । पश्चादभ्यर्णकान वीक्ष्यं प्रमाणं गुणदोषयोः ॥ ३९ ॥
अब इनके बैठनेका क्रम बतलाते हैं कि सभापति महोदय इन वादी प्रतिवादियोंके एक बोरसे सभ्य प्रानिकों की स्थितिको करा देवें और एक ओरसे उन प्राश्निकोंके पीछे समीपवर्ती दर्शकोंको करा देवें । तब वादी प्रतिवादियोंके गुण दोषोंमें प्रमाणको ढूंढना चाहिये ।
लौकिकार्थविचारेषु न तथा प्राश्निका यथा ।
शास्त्रीयार्थविचारेषु वा तज्ज्ञाः प्राश्निका यथा ॥४०॥ लोकसम्बन्धी अर्थोके विचारों ( मुकदमा ) में जिस प्रकार प्रानिक होते हैं। उस प्रकार शास्त्रसम्बन्धी अर्यके विचारों में वैसे प्राश्निक नहीं होते हैं । किन्तु शास्त्रार्थके विचार करनेमें उस विषय को यथायोग्य परिपूर्ण जाननेवाले पुरुष मध्यस्थ होते हैं ।
सत्यसाधनसामर्थ्यसंप्रकाशनपाटवः ।। वाद्यजेयो विजेता नो सदोन्मादेन केवलम् ॥४१॥ समर्थसाधनाख्यानं सामर्थ्य वादिनो मतं । सा ववश्यं च सामर्थ्यांदन्यथानुपपन्नता ॥ ४१ ॥
समीचीन हेतुकी सामर्थ्यका अच्छा प्रकाश करनेमें दक्षतायुक्त वादी विद्वान् दूसरोंके द्वारा जीतने योग्य नहीं है । किन्तु दूसरोंको विशेषरूपसे जीतनेवाला है। केवल चित्तविभ्रमसे सदा वादी विजेता नहीं होता है। साध्यको साधनेमें समर्थ हो रहे हेतुका कथन करना ही वादीकी सामर्थ्य मानी गयी है, और वह हेतुकी सामर्थ्य तो साध्यके साथ अन्यथा अनुपपत्ति होना है। जो कि वादीकी शक्तिरूपसे अति भावश्यक मानी गयी है। यानी साध्यके विना हेतुका नहीं ठहरना हेतुकी सामर्थ्य है । इस प्रकार वादीकी सामर्थ्य कह दी है।
सदोषोद्भावनं चापि सामर्थ्य प्रतिवादिनः । दूषणस्य च सामर्थ्य प्रतिपक्षविघातिता ॥ ४३ ॥
प्रविवादीकी सामर्थ्य मी समीचीन दोषोंका उत्थान करना है। और दूषणकी शक्ति तो प्रतिपक्ष यानी वादीके पक्षका विशेष रूपसे घात कर देना है। अर्थात्-जैसे कि धनुर्धारीकी सामर्थ्य उत्तम बाणका होना है। और बाणकी शक्ति तो शत्रुपक्षका विघात करना है।