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________________ तत्वार्यचिन्तामाणः ११५ mmmmmmmmmmmunnaommunmunnaminerminommunintensistaniD. दृष्टिचारित्रमोहस्य क्षये वोपशमेऽपि वा। मनःपर्ययविज्ञानं भवन्मिथ्या न युज्यते ॥५॥ दर्शनमोहनीयकर्म और चारित्रमोहनीय कर्मके क्षय या उपशम अथवा क्षयोपशमके भी होनेपर हो रहा मनःपर्यय ज्ञान कैसे भी मिथ्या नहीं हो सकता है। भावार्थ-सम्यग्दर्शन और सम्यग्चारित्रके सहभावी मनःपर्यय ज्ञानको मिथ्यापना युक्त नहीं है । छठवेंसे लेकर बारहवें गुणस्थानतक मनःपर्यय ज्ञान होना सम्भवता है। जिस समय मुनिमहाराजके मनःपर्ययज्ञान है, उस समय प्रथमोपशम या द्वितीयोपशम सम्यक्त्व, क्षायिकसम्यक्त्व, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, इन तीन सम्यक्तोंमेंसे कोई एक सम्यक्त्व अवश्य है । तथा छठवें, सात गुणस्थानोंमें बायोपशमिक चारित्र पाया जाता है। इसके आगे उपशमचारित्र तथा क्षायिक चारित्र है । अतः ज्ञानोंको मिथ्या करनेवाले कारणोंका सहवास नहीं होनेसे मनःपर्ययज्ञान समीचीन ही है, मिथ्या नहीं, यह युक्तिपूर्ण सिद्धान्त है। सर्वघातिक्षयेऽत्यन्तं केवलं प्रभवत्कथम् । मिथ्या सम्भाव्यते जातु विशुद्धिं परमां दधत् ॥६॥ ज्ञानावरण कर्मोंकी सर्वघातिप्रकृतियोंके अत्यन्त क्षय हो जानेपर उत्पन्न हो रहा केवळज्ञान तो कदाचित् भी भला कैसे मिथ्यारूप सम्भव सकता है ! जब कि वह केवलज्ञान उत्कृष्ट विशुद्धिको धारण कर रहा है । दर्शन और चारित्रमें दोष लग जानेपर ही ज्ञानोंमें मिथ्यापन प्राप्त हो जाता है किन्तु दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय और ज्ञानावरण प्रकृतियोंके सर्वथा क्षय हो जानेपर उत्पन्न हो रहा केवलज्ञान तो कालत्रयमें भी विपर्यय नहीं हो सकता है । अत्यन्त क्षयमें अत्यन्तका अर्थ तो वर्तमानमें एक वर्गणाका भी नहीं रहना और भविष्यमें उन कर्मीका किंचित् भी नहीं बन्धना है । मतिश्रुतावधिज्ञानत्रयं तु स्यात्कदाचन । मिथ्येति ते च निर्दिष्टा विपर्यय इहाङ्गिनाम् ॥७॥ जीवोंके मति, श्रुत, अवधि, ये तीन ज्ञान तो कभी कभी मिथ्या हो जाते हैं । इस कारण वे मति, श्रुत, अवधि, ज्ञान इस प्रकरणमें विपर्यय इस प्रकार कह दिये हैं। स च सामान्यतो मिथ्याज्ञानमत्रोपवर्ण्यते । संशयादिविकल्पानां त्रयाणां संगृहीतये ॥८॥
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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