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________________ तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके अथ ज्ञानानि पंचापि व्याख्यातानि प्रपंचतः। किं सम्यगेव मिथ्या वा सर्वाण्यपि कदाचन ॥१॥ कानिचिद्वा तथा पुंसो मिथ्याशंकानिवृत्तये । स्वेष्टपक्षप्रसिद्धयर्थं मतीत्याद्याह संप्रति ॥२॥ अब नवीन प्रकरणके अनुसार यह कहा जाता है कि विस्तारसे पांचों भी ज्ञानोंका व्याख्यान किया जा चुका है । उसमें किसीका इस प्रकार शंकारूप विचार है कि क्या सभी ज्ञान कभी कभी समीचीन ही अथवा मिथ्या मी हो जाते हैं ! या आत्माके पांचोंमेंसे कितने ही ज्ञान तिस प्रकार समीचीन और मिथ्याज्ञान हो जाते हैं ! इस प्रकार मिथ्या आशंकाओंकी निवृत्तिके लिये और अपने इष्ट सिद्धान्तपक्षकी सिद्धिके लिये श्रीउमास्वामी महाराज अवसर अनुसार इस समय "मतिश्रुतावधयो" इत्यादि सूत्रको स्पष्ट कहते हैं। __ पूर्वपदावधारणेन सूत्रं व्याचष्टे । मति, श्रुत, अवधिज्ञान ही विपरीत हो जाते हैं, यो पहिले उद्देश्य वाक्यके साथ "एवकार" लगाकर अवधारण किया गया है। किन्तु मति, श्रुत, और अवधि ये तीन ज्ञान मिथ्याज्ञान ही हैं, इस प्रकार विधेयदलके साथ एवकार लगानेसे हम जैनोंका इष्ट सिद्धान्त बिगड जाता है। क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीवोंमें हो रहे मति, श्रुत, अवधि, ये तीन ज्ञान सम्यग्ज्ञान भी हैं । अतः उत्तरवर्ती अवधारणको छोडकर पूर्वपदके साथ एवकार लगाकर अवधारण करके श्रीविद्यानन्दस्वामी इस सूत्रका व्याख्यान करते हैं। मत्यादयः समाख्यातास्त एवेत्यवधारणात् । संगृह्यते कदाचिन मनःपर्ययकेवले ॥ ३ ॥ नियमेन तयोः सम्यग्भावनिर्णयतः सदा । मिथ्यात्वकारणाभावाद्विशुद्धात्मनि सम्भवात् ॥ ४॥ वे मति आदिक ज्ञान ही मिथ्याज्ञानरूप करके भले प्रकार आम्नाय अनुसार कहे गये हैं। इस प्रकार पूर्व अवधारण करनेसे मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान कभी भी विपर्यय ज्ञान करके संगृहीत नहीं हो पाते हैं। क्योंकि उन मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञानमें सदा ही नियमकरके समीचीन भावका निर्णय हो रहा है । ये दो ज्ञान विशेषरूपसे शुद्ध हो रहे आत्मामें उपजते हैं । अतः इनको मिथ्यापनके सम्पादनका कोई कारण नहीं है । अतः आदिके तीन ज्ञान मिथ्याज्ञान भी हो जाते हैं। और अन्सके दो ज्ञान समीचीन ही हैं ।
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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