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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः . दोनोंमेंसे किसी एक प्रकरणके सिद्ध हो जानेपर उसके अन्तमें विपरीत पक्षकी निपत्ति कर देनेसे इस प्रकारका प्रकरणसम प्रत्यवस्थान उठाना अयुक्त है। क्योंकि एक विपक्षमें प्रक्रियाको समीचीन सिद्धि हो चुकनेपर पुनः दोनों पक्ष प्रतिपक्षोंकी सिद्धि कहनेका विरोध है । देखिये, प्रतिपक्षको प्रक्रियांके सिद्ध हो जानेपर तो उस प्रतिपक्षका प्रतिषेध करना नियमसे विरुद्ध पडता है। और प्रतिपक्षके निषेधकी सिद्धि हो चुकनेपर तो प्रतिपक्षकी प्रक्रिया साधनेका व्याघात हो जाता है। इस कारण उन दोनोंका एक स्थळपर सम्भव जाना ही विरुद्ध है। कोई विचारशील विद्वान घटको सर्वथा निस्य सर्वथा अनित्य एक साथ नहीं साध सकता है । अतः दोनों नित्य, अनिस्य पक्षोंकी प्रक्रिया साथ देना अनुचित है। दूसरी बात यह है कि दोनों पक्षोंका ताविकपना निर्णात कर चुकने पर ही यह प्रकरण सिद्ध हो सकता था, अन्यथा यह उभयसाधर्म्यसे होनीवाली प्रक्रिया कैसे भी सिद्ध नहीं हो पायेगी । किन्तु यहां तो विप्रतिषेध होने के कारण दोनोंका ताविकपना निर्णीत नहीं हो सका है । तिस कारणसे यह प्रकरण सिद्ध नहीं है और उस प्रक्रियाकी सिद्धि नहीं हो चुकने पर यह प्रकरणसमा जाति नहीं सम्भवती है। इसी प्रकार उभयके वैधयंकरके प्रक्रियाको साध कर पुनः प्रत्यवस्थान देना नहीं सम्भवता है । जैसे कि जैनोंने गुण और गुणीका कथंचिद् भेद, अमेद सम्बन्ध माना है । यदि कोई दूसरा विद्वान भेद अभेद दोनोंके वैधय॑से प्रक्रियाको साधना चाहे तो वह विप्रतिषेध होनेका कारण प्रकरणको नहीं साध सकता है। कथंचिद् भेदाभेद और सर्वथा भेदाभेद दोनोंका वैधर्म्य एक स्थळपर सम्भव नहीं है । अतः प्रकरणसम जाति समीचीन दूषण नहीं है। - का पुनरहेतुसमा बातिरित्याह। फिर बहेतुसमा नामकी जाति क्या है। ऐसी बुभुत्सा होनेपर न्यायसूत्र और न्यायभाष्यके बनु. बाद अनुसार श्री विषानन्द आचार्य समाधान कहते हैं। त्रैकाल्यानुपपत्तेस्तु हेतोः साध्यार्थसाधने । स्यादहेतुसमा जातिः प्रयुक्त साधने कचित् ॥ ३८७॥ पूर्व वा साधनं साध्यादुचरं वा सहापि वा। पूर्व तावदसत्यर्थे कस्य साधनमिष्यते ॥ ३८८ ॥ पश्चाचेत् किं नु तत्साध्यं साधनेऽसति कथ्यतां । युगपद्वा कचित्साध्यसाधनत्वं न युज्यते ॥ ३८९ ॥
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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