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तत्वार्थाकवार्तिके
स्वतंत्रयोस्तथाभावासिद्धेर्विन्ध्य हिमाद्रिवत् । तथा चाहेतुना हेतुर्न कथंचिद्विशिष्यते ॥ ३९० ॥ इत्यहेतुसमत्वेन प्रत्यवस्थाप्यऽयुक्तिका । हेतोः प्रत्यक्षतः सिद्धेः कारकस्य घटादिषु ॥ ३९९ ॥ कार्येषु कुंभकारस्य तन्निवृत्तेस्ततो ग्रहात् । ज्ञापकस्य च धूमादेरग्न्यादौ ज्ञधिकारिणः ॥ ३९२ ॥
स्वज्ञेये पर संताने वागादेरपि निश्चयात् । त्रैकाल्यानुपपत्तेश्च प्रतिषेधे क्वचित्तथा ॥ ३९३ ॥
साम्यस्वरूप अर्थ साधन करनेमें हेतुका तीनों कालोंमें वर्तना नहीं बननेसे प्रत्यवस्थान देने पर तो अहेतुसमा जाति हो जायगी जैसे कि कहीं वादी द्वारा समीचीन साधनका प्रयोग करनेपर दूसरा प्रतिवादी समीचीन दूषणोंको नहीं देखता हुआ यों ही प्रत्यवस्थान उठा देता है कि बताबों, तुम्हारा शापक हेतु क्या साध्यसे पूर्वकालमें वर्तता है ! अथवा क्या साध्यसे पश्चात् उत्तरकालमें ठहरता है ! अथवा क्या साध्य और साधन दोनों भी समान काक में साथ साथ रहते हैं ? बताओं । यदि प्रथम पक्षके अनुसार साध्य के पहिले कालमें साधनकी प्रवृत्ति मानी जायगी तब उसको साधनपना नहीं बन सकता । क्योंकि साध्यरूप अर्थ नहीं होते संते पहिले बैठा बैठा वह किसका साधन करेगा ! अर्थात् - किसीका भी नहीं । यदि द्वितीय पक्ष अनुसार साध्य के पीछे साधन की प्रवृत्ति मानोगे, तब तो उसको साध्यपना नहीं बन पावेगा। साधनके नहीं होनेपर वह साध्य भला कैसा कहा जा सकेगा ! साधन के होनेपर कोई अविनाभावी पदार्थ साध्य कहा जा सकता है ! किन्तु साधनके नहीं होते संते वह साधन के पहिले वर्त रहा साध्या स्वरूप नहीं कहा जा सकता है । साधन द्वारा साधने योग्य पदार्थको साध्य कहते हैं । दश वर्षके पीछे जिसके पुत्र होनेवाला है, वह प्रथमसे ही बाप नहीं बन बैठता है । साध्य जब पहिले ही सिद्ध हो चुका तो इस हेतुने क्या पत्थरा कार्य किया ? अर्थात् नहीं। तृतीयपक्ष अनुसार यदि साध्य और साधनका युगपत् सहभाव मानोगे तब तो किसी एक विवक्षितमें ही साध्यपना अथवा साधनपना युक्त नहीं हो सकता है। स्वतंत्रपने करके प्रसिद्ध हो रहे सहकाळभाषी दोनों में किसी एकका तिस प्रकार साध्यपना और शेषका साधनपना असिद्ध है। जैसे कि मध्यभारत और उत्तर प्रान्त में युगपत् पडे हुये विन्ध्याचल और हिमालय पवतोंमेंसे किसी एक का साधनपना और बचे हुये किसी एक पहाडका साधनपना असिद्ध है । गायके डेरे और सीधे सांगों के समान दोनों भी साध्य हो जायेंगे अथवा दोनों साधन बन