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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः इत्यचोद्यं दृशस्तत्रानुपयुक्तत्वसिद्धितः । पुंसो विकल्पविज्ञानं प्रत्येवं प्रणिधानतः ॥ ३२ ॥ सोपयोगं पुनश्चक्षुर्दर्शनं प्रथमं ततः। चक्षुर्ज्ञानं श्रुतं तस्मात्तत्रार्थेऽन्यत्र च क्रमात् ॥ ३३ ॥ अब आचार्य कहते हैं कि उक्त चार वार्तिकोंद्वारा किया गया बौद्धोंका चोध समीचीन नहीं है । क्योंकि अश्वका विकल्पज्ञान करते समय वहां गोदर्शनके अनुपयुक्तपनेकी सिद्धि हो रही है। बाता पुरुषका विकल्पज्ञान करनेके प्रति ही एकाग्र मनोव्यापार लग रहा है । आत्माके उपयोग क्रमसे ही होते हैं । पहिले उपयोगसहित चक्षुःइन्द्रियजन्य दर्शन होता है। वह पदार्थोकी सत्ताका सामान्य आलोकन कर लेता है। उसके पीछे चक्षुइन्द्रियजन्य मतिज्ञान होता है जो कि रूप, आकृति और घट आदिकी विकल्पना ( व्यवसाय ) करता हुआ उनको विशेषरूपसे जान देता है। उसके भी पीछे उस अर्थमें या उससे सम्बन्ध रखनेवाले अन्य पदार्थोमें क्रमसे श्रुतज्ञान होता है । कचित् चक्षुदर्शन, चाक्षुष अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, और अनुमान ये उपयोग क्रमसे अनेक क्षणोंमें उपजते हैं, आत्माका एक समयमें एक ही ओर उपयोग लग सकता है। प्रादुर्भवत्करोत्याशुवृत्या सह जनौ धियं । यथाहग्ज्ञानयोर्नृणामिति सिद्धान्तनिश्चयः ॥ ३४ ॥ जीवोंके जिस प्रकार निराकार दर्शन और साकारज्ञान ये उपयोग क्रमसे ही होते हैं, किन्तु शीघ्र ही दोनोंकी वृत्ति हो जानेसे स्थूलघुद्धि पुरुषोंके यहां एक साथ उत्पन्न हो जानेमें बुद्धिको प्रकट कर देते हैं, उसी प्रकार गोदर्शन और अश्वविकल्प या चाक्षुष मतिज्ञान और श्रुतबान ये भी उपयोग क्रमसे ही होते हैं। किन्तु शीघ्र पीछे वर्त जानेसे एक साथ दोनोंकी उत्पत्ति हो जानेमें बुद्धिको प्रकट कर देते हैं । यह निर्णीत सिद्धान्त है। भावार्थ-छमस्थ जीवोंके उपयोग कमसे ही होवेंगे, लब्धिखरूप भले ही एक साथ चार ज्ञान, तीम दर्शनतक हो जाय, प्रभेदोंकी अपेक्षा सैकड़ों क्षयोपशमरूप विशुद्धियां एक साथ हो सकती हैं। जननं जनिरिति नायमिगन्तो यतो जिरिति प्रसज्यते किं तर्हि, औणादिकइकारोऽत्र क्रियते बहुलवचनात् । उणादयो बहुलं च सन्तीति वचनात् इकारादयोऽप्यनुक्ताः कर्त्तम्या एवेति सिद्धं जनिरिति ।
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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