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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
संस्कारस्मृतिहेतुर्या गोदृष्टिः सविकल्पिका । सान्यथा क्षणभंगादिदृष्टिवन तथा भवेत् ॥ २९ ॥
बौद्ध जन अपने पक्षका अवधारण करते हुये कुचोध उठाते हैं कि उक्त प्रकारसे एक समय में एक ही ज्ञान मान लेनेपर जैनोंके प्रति हम बौद्ध पूंछते हैं कि इस प्रकार घोडेका विकल्पक ज्ञान करते समय गौके दर्शनकी सविल्पकताको स्याद्वादसिद्धान्तको जाननेवाले विद्वानों करके भला कहीं किस प्रकार साधा जावेगा ? बताओ। अन्यथा यानी गोदर्शनको उसी समय यदि सविकल्पक , नहीं माना जायगा तो क्षणिकत्व, स्वर्गप्रापणशक्ति, आदिके दर्शनों समान वह गोदर्शन भी सविकल्पक हो रहा, तिस प्रकार संस्कारोंद्वारा स्मृतिका कारण नहीं हो सकेगा। अर्थात्-वस्तुभूत अाणिकत्वका ज्ञान तो निर्विकल्पक दर्शनसे ही हो चुका था। फिर भी नित्यत्वके समारोहको दूर करनेके लिये सत्वहेतुद्वारा पदार्थोके क्षणिकपनेको अनुमानसे साध दिया जाता है । बौद्धोंके यहां वास्तविक पदार्थोका प्रत्यक्ष ज्ञान ही होना माना गया है। इसी प्रकार दानकर्ता पुरुषकी स्वर्गप्रापणशक्तिका निर्विकल्पक दर्शन हो जाता है । क्षणिकत्व आदिके दर्शनोंका सविकल्पकपना नहीं होनेके कारण पीछे उनकी स्मृतियां नहीं हो पाती है। यदि जैन जन गोदर्शनके समय अश्वका सविकल्पक ज्ञान नहीं मानेंगे तो पश्चात् गौका स्मरण नहीं हो सकेगा । हां, दोनोंके एक साथ मानलेनेपर तो गोदर्शनमें अश्वविकल्पसे सविकल्पपना आ जाता है । और वह संस्कार जमाता हुआ पीछे कालमें होनेवाली स्मृतिका कारण हो जाता । अतः हम बौद्धोंके मन्तव्य अनुसार दर्शन, ज्ञान और विकल्प ज्ञान दोनोंका योगपद्य बन सकता है।
इत्याश्रयोपयोगायाः सविकल्पत्वसाधनं । नेत्रालोचनमात्रस्य नाप्रमाणात्मनः सदा ॥ ३०॥ गोदर्शनोपयोगेन सहभावः कथं न तु । तद्विज्ञानोपयोगस्य नार्थव्याघातकृत्वदा ॥ ३१ ॥
अभी बौद्ध ही कहे जा रहे हैं कि इस प्रकार अश्वषिकल्पके आश्रय हो रही उपयोगस्वरूप गोदृष्टि ( निर्विकल्पज्ञान ) को सविकल्पकपना साधना ठीक है । अप्रमाणस्वरूप हो रहे नेत्रजन्य केवळ आलोचन मात्र ( दर्शन ) को सर्वदा सविकल्पकपना नहीं साधा जाता है। अतः उस उपयोग आत्मक सविकल्पक विज्ञानका गोदर्शनस्वरूप उपयोगके साथ तो एक कालमें सद्भाव क्यों नहीं होगा ? यानी दोनों ज्ञान एक साथ रह सकते हैं, उस समय अर्थके व्याघातको करनेवाला कोई दोष नहीं आता है।