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________________ स्वार्थचिन्तामणिः ज्ञानद्वय सकृज्जन्मनिषेधं हन्ति चेन्न वै । तयोरपि सहैवोपयुक्तयोरस्ति वेदनम् ॥ २४ ॥ यदोपयुज्यते ह्यात्मा मतङ्गजविकल्पने । तदा लोचनविज्ञानं गवि मन्दोपयोगहृत् ॥ २५ ॥ यहां पर बौद्ध कहते हैं कि जिस ही समय सन्मुख हो रही गौमें चक्षु इन्द्रियजन्य निर्विकल्पक स्वरूप प्रत्यक्षज्ञान हो रहा है, उसी समय हाथीका विकल्पज्ञान भी हो रहा है । इस प्रकार इन दो ज्ञानका साथ उत्पन्न हो जाना तो जैनद्वारा माने गये दो ज्ञानोंकी एक समय में उत्पत्तिके निषेधको नष्ट कर देता है । इस प्रकार प्रतिवादियोंके कहनेपर तो हम जैन कहते हैं कि उपयोगको प्राप्त हो रहे उन गोदर्शन और गजविकल्प दोनों भी ज्ञानोंका एक साथ ही अनुभव कथमपि नहीं हो रहा है । जिस समय आत्मा हाथीका विकल्पज्ञान करनेमें उपयुक्त हो रही है, उस समय गौमें हुआ नेत्रजन्य ज्ञान तो मन्द उपयोगी होता हुआ नष्ट हो चुका है । अतः निर्विकल्पक और सविकल्पक दोनों ज्ञान क्रमसे ही उपजते हैं, ऐसा निश्चयसे समझलो । १०९ तथा तत्रोपयुक्तस्य मतङ्गजविकल्पने । प्रतीयन्ति स्वयं सन्तो भावयन्तो विशेषतः ॥ २६ ॥ समोपयुक्तता तत्र कस्यचित्प्रतिभाति या । साशुसंचरणाद्धान्तेग कुञ्जरविकल्पवत् ॥ २७ ॥ और जिस समय आत्मा गौके चाक्षुषप्रत्यक्ष करनेमें उपयोगी हो रहा है, उस समय हाथी का विकल्पज्ञान करनेमें मन्द करते हुए अपने उपयोगका उपसंहार कर रहा है। विशेषरूपोंसे भावना कर रहे सज्जन विद्वान् इस तरत्रकी स्वयं प्रतीति कर रहे हैं। किसी किसी स्थूल बुद्धिबाले पुरुषको उन दोनों ज्ञानों में समान काल ही उपयुक्तपना जो प्रतिभास रहा है, वह तो शीघ्र शीघ्र ज्ञानोंका संचार हो जानेके वश होगयी भ्रान्तिसे देखा गया है । जैसे कि गौका विकल्पज्ञान और हाथीका विकल्पज्ञान । यद्यपि ये दो विकलरज्ञान क्रमसे हो रहे हैं, फिर भी शीघ्र शीघ्र आगे पीछे हो जानेसे भ्रमवश एक कालमें हो रहे समझ लिए जाते हैं । जब कि दो विकल्प ज्ञानोंका क्रमसे होना आप बौद्ध स्वीकार करते हैं, तो उसी प्रकार दो निर्विकल्प सविकल्प ज्ञानोंका अथवा कई निर्विकल्पक ज्ञानका उत्पाद भी क्रमसे ही होगा, एक साथ नहीं । 'नन्वश्व कल्पनाकाले गोदृष्टेः सविकल्पताम् । कथमेवं प्रसाध्येत कचित्स्याद्वादवेदिभिः ॥ २८ ॥
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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