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________________ ___तपार्थचिन्तामणिः सर्वगत्वे परस्मिंश्च जातेः ख्यापितहेतुवत् ॥ ६८॥ स च सत्प्रतिपक्षोऽत्रकैश्चिदुक्तः परैः पुनः। . अनेकान्तिक एवेति ततो नास्य विभिन्नता ॥ ६९ ॥ स्वेष्टधर्मविहीनत्वे हेतुनान्येन साधिते। साध्याभावे प्रयुक्तस्य हेतो भावनिश्चयः ॥ ७० ॥ धर्मिणीति स्वयं साध्यासाध्ययोवृत्तिसंश्रयात् । नानैकान्तिकता बाध्या तस्य तल्लक्षणान्वयात् ॥ ७१ ॥ सत्तास्वरूपपर जाति अथवा द्रव्यत्व, गुणत्व, घटत्व, आदि अपर जाति (सामान्य) का सर्व व्यापकपना अथवा अपर यानी अव्यापकपना साध्य करनेपर प्रसिद्ध करा दिये गये हेतुओंके समान बह हेतु किन्हीं वैशेषिकोंने अपने यहां सत्प्रतिपक्ष कहा है। " साध्यामावसाधकं हेत्वन्तरं यस्य स सम्प्रतिपक्षः " । मावार्थ-सामान्य (पक्ष ) ब्यापक है ( साध्य ), सर्वत्र व्यक्तियोंमें अन्वित होनेसे ( हेतु ), जैसे आकाश ( दृष्टान्त ) । इस अनुमान द्वारा जातिको ब्यापक सिद्ध किया जाता है । तथा सामान्य ( पक्ष ) अव्यापक है ( साध्य ) क्योंकि अन्तरालमें नहीं दीखता दुआ प्रति व्यक्तिमें न्यारा न्यारा प्रतीत हो रहा है ( हेतु ) जैसे कि घट व्यक्ति ( दृष्टान्त ) यहां वैशेषिकोंने दूसरा हेतु सत्प्रतिपक्ष माना है फिर अन्य दार्शनिकोंने उसको अनैकान्तिक ही कहा है तिस कारण हम स्याद्वादियोंके यहाँ भी वह अनेकान्तिक ही है। अनेकान्तिक हेत्वाभाससे इस सत्प्रति पक्षका कोई विशेष मेद नहीं है । दूसरे हेतु करके अपने अभीष्ट साध्य धर्मसे रहितपना साधा जानेपर साध्यवाले धीमें साध्यके अभावको साधने में प्रयुक्त किये गये हेतुके अभावका निश्चय नहीं हैं। क्योंकि स्वयं वादीने साध्य और साध्यामावके होनेपर हेतुके वर्तनेका समीचीन आश्रय ले रक्खा है। इस कारण उस सत्प्रतिपक्ष कहलानेवाले हेतुको अनैकान्तिक हेत्वाभासपना बाधा करने योग्य नहीं है। क्योंकि उस अनेकान्तिकका लक्षण वहां अन्वयरूपसे घटित हो जाता है पर्वत ( पक्ष ) वहिमान् है ( साध्य ) धूम होनेसे ( हेतु ) । तथा दूसरा अनुमान यों है कि पर्वतमें वहिका अभाव है । पाषामका विकार होनेसे, यहां पाषाणमयस्व हेतु सत्प्रतिपक्ष माना गया है। किन्तु वह विपक्ष में वर्तने के कारण अनैकान्तिक हेत्वाभास है। इसी प्रकार जातिको व्यानरुपना सिद्ध करनेवाचा हेतु स्याद्वादियोंके यहां अनैकान्तिक हेत्वामास है। वैशेषिकोंकी ओरसे जातिका अध्यापकपना साधनेवाला हेतु कुछ देरके लिये अनेकान्तिक कहा जा सकता है। सत्प्रतिपक्षको बला हेवामास माननेकी आवश्यकता नहीं है।
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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