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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
यः स्वपक्षविपक्षान्यतरवादः खनादिषु । नित्यत्वे भंगुरत्वे वा प्रोक्तः प्रकरणे समः ॥ ७२ ॥ सोऽप्यनैकान्तिकान्नान्य इत्यनेनैव कीर्तितम् | स्वसाभ्येऽसति सम्भूतिः संशयांशाविशेषतः ॥ ७३ ॥
शद्व, घट, आदिकों में नित्यपना अथवा क्षणिकपना साधनेपर जो स्वपक्ष और विपक्षमेंसे किसी भी एकमें ठहरने का वाद प्रकरणसन कहा गया है, वह भी अनैकान्तिकसे मिल नहीं है । इस प्रकार सिद्धान्त भी उक्त प्रन्थ करके ही कह दिया गया है । अर्थात् -" यस्मात् प्रकरण चिन्ता स निर्णयार्थमपदिष्टः प्रकरणसमः ~33 जिस हेतुसे साध्यवान् और साध्याभाववान् के प्रकरण की जिज्ञासा हो जाय वह निर्णय करने के लिये प्रयुक्त किया गया हेतु प्रकरणसम कहा जाता है। 1 शब्दको नित्यपना साधने में ममितिको करके दिया गया प्रत्यभिज्ञायमानपना हेतु नैयायिकोंकी ओर से प्रकरणसम हेत्वाभास है । और शब्दका अनित्यपना साधनेमें नैयायिकों करके दिया गया कृतकत्व हेतु तो मीमांसकोंकी ओरसे प्रकरणसम कहा जाता है। किन्तु यह प्रकरणसम अनैकान्तिक हेत्वाभाससे न्यारा नहीं है । अत्यल्प भेद होनेसे हेत्वाभासकी कोई न्यारी जाति नहीं हो जाती है । अपने साध्यके नहीं होनेपर विद्यमान रहना यह निश्चित व्यभिचार और संशयांशरूप व्यभिचारका यहां भी सद्भाव है । किसी अंश में विशेषता नहीं है ।
कालात्ययापदिष्टोऽपि साध्ये मानेन बाधिते ।
यः प्रयुज्येत हेतुः स्यात्स नो नैकान्तिकोऽपरः ॥ ७४ ॥ साध्याभावे प्रवृत्तो हि प्रमाणैः कुत्रचित्स्वयम् । साध्ये हेतुर्न निर्णीतो विपक्षविनिवर्त्तनः ॥ ७५ ॥
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जो हेतु प्रमाणद्वारा साध्यके बाधित हो जानेपर प्रयुक्त किया जाता है, वह कालात्ययापदिष्ट हेतु भी हमारे यहां दूसरे प्रकारका अनैकान्तिक हेत्वाभास माना गया है । बाधित हेत्वाभास कोई न्यारा नहीं है । बहि शीतक है, कृतक होनेसे, यहां कृतकत्व हेतु व्यभिचारी है । कहीं कहीं तो स्वयं प्रमाणोंकर के साध्यका अभाव जान लेनेपर पुनः वह हेतु प्रवृत्त हुआ है और कहीं साध्यके होनेपर हेतुका निर्णय हो चुका है। किन्तु विपक्षसे निवृत्त हो रहे हेतुका निर्णय नहीं है। बस, इतना ही बाधित और अनैकान्तिकमें थोडासा अन्तर है ।