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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
यह हेतु संदिग्ध व्यभिचारी है । क्योंकि सर्वज्ञपना होते हुये और उस सर्वशस्वके अभाव होनेपर सम्भव रहा यह विश्वकर्तापन ईश्वरमें संदिग्ध है । तिस कारण नैयायिकोंका यह हेतु अपने साध्यका ज्ञापक नहीं है । विपक्षमें सम्पूर्ण रूपसे हेतुका नहीं वर्तना संदिग्ध है।
नित्यो ध्वनिरमूर्चत्वादिति स्यादेकदेशतः। स्थितस्तयोविनिर्दिष्टपरोपीहक्तदा तु कः ॥ ६५॥
सद्ध ( पक्ष ) नित्य है ( साध्य ), अमूर्तपना होनेसे (हेतु )। यह हेतु एकदेशसे विपक्ष में वर्तने के कारण निश्चित व्यभिचारी है । अर्थात्-विपक्षके एकदेश हो रहे अनित्य सुख, दुःख, क्रिया, आदिमें अमूर्त्तत्व हेतु वर्त रहा है । और विपक्ष के बहुदेश घट, पट, अग्नि, आदिमें हेतु नहीं वर्त रहा है । अतः विपक्ष के एकदेश वृत्तिपनसे व्यवस्थित हो रहा है। इसी प्रकार उन एकदेश निर्णीत और एकदेश संदिग्धमेंसे दूसरा एकदेश संदिग्ध भी तब तो कोई हेतु विशेषरूपसे कह दिया गया है । जैसे कि गुण अनित्य है अमूर्त होनेसे, यहां विपक्षके एकदेशमें हेतुकी वृत्तिता संदिग्ध है।
यत्राथें साधयेदेको धर्म हेतुर्विवक्षितम् । तत्रान्यस्तद्विरुद्धं चेद्विरुद्धया व्यभिचार्यसौ ॥ ६६ ॥ इति केचित्तदयुक्तमनेकान्तस्य युक्तितः । सम्यग्घेतुत्वनिर्णीतेर्नित्यानित्यत्वहेतुवत् ॥ ६७ ॥
सर्वथैकान्तवादे तु हेत्वाभासोऽयमिष्यते ।
जिस अर्थमें एक हेतु तो विवक्षा किये गये धर्मका साधन करावे और दूसरा हेतु वहां ही उस साध्यसे विरुद्ध अर्थको साधे तो वह हेतु विरुद्धपनके साथ व्यभिचारी है, इस प्रकार कोई कह रहे हैं । उनका वह कहना युक्तिरहित हैं । क्योंकि समीचीन युक्तियोंसे नित्यपन और अनित्यपनको साधनेवाले हेतुओंके समान उन अनेक धर्मोको साधनेवाले हेतुओंका भी समीचीन हेतुपनेकरके निर्णय हो रहा है । हां, सभी प्रकारोंसे एक ही धर्मका आग्रह करके एकान्तवाद स्वीकार कर लेनेपर तो यह अविद्यमान विरोधी धर्मको साधनेवाला हेतु हेस्वाभास माना गया है । जैसे कि "मिष्याष्टि जीव बानवान है, क्योंकि चेतनागुणका मिथ्या उपयोगरूप परिणाम विधमान है। " " तथा मिथ्यावृष्टि जीव ज्ञानरहित है। मोक्ष उपयोगी तस्वज्ञान नहीं होनेसे", यहां स्याद्वाद सिद्धान्त अनुसार दोनों हेतु समीचीन हैं । हां, एकान्तबादियोंके मतमें दूसरा हेतु समीचीन नहीं है।