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तत्वार्थचोकवार्तिके
कोई न्यारा विषय नहीं है। द्रव्यार्थिक नयसे ही शुद्ध द्रव्य, अशुद्ध द्रव्य, सभी द्रव्योंका ज्ञापन हो जाता है। अतः दो नेय विषयोंको जाननेवाले द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ये दो नय ही पर्याप्त हैं।
संक्षेपाविवक्षायां तु विशेषवचनस्य चत्वारो नयाः स्युः, पर्यायविशेषगुणस्येव द्रव्यविशेषशुद्धद्रव्यस्य पृथगुपादानप्रसंगात् ।
हो, नयोंके भेदोंका संक्षेपसे नहीं कथन करनेकी विवक्षा करनेपर तो विशेषोंको कहनेवाळे वचन बहुवचन " नयाः " बनाकर चार चार नय हो सकेंगे। एक भेद द्रव्यका बढ जायगा और दूसरा विशेष पर्यायका बढ जायगा, जब कि पर्यायके विशेष हो रहे गुणको जाननेके लिये गुणाथिक नय न्यारा माना जापगा तो द्रव्यके विशेष हो रहे शुद्ध द्रव्यको विषय करनेवाले शुद्ध द्रव्यार्थिक नयके पृथक ग्रहण करनेक्स प्रसंग हो जावेगा । यो थोडे थोडेसे विषयों को लेकर नयों के चाहे कितने भी भेद किये जासकते हैं।
ननु च द्रव्यपर्याययोस्तद्वांस्तृतीयोस्ति तद्विषयस्तृतीयो मूळनयोऽस्तीति चेत् न, तत्परिकल्पनेऽनवस्थाप्रसंगाव द्रव्यपर्यायस्तद्वतामपि तद्वदंतरपरिकल्पनानुषक्तेदुर्निवारत्वात् ।
यहां दूसरी शंका है कि द्रव्य और पर्यायोंका मिलकर उन दोनोंसे सहित हो रहा पिंड एक तीसरा विषय बन जाता है। उसको विषय करनेवाला तीसरा एक द्रव्यपर्यायार्थिक भी मूल नय क्यों गिनाये जा रहे हैं । इसपर आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना। क्योंकि यदि इस प्रकार उन नयोंकी मिला मिलकर चारों ओरसे कल्पना की जायगी तब तो अनवस्था दोष हो जानेका प्रसंग होगा। क्योंकि द्रव्य और पर्याय तथा उन दोनोंको धारनेवाले आश्रय इन तीनोंको मिलाकर एक नया विषय भी गढा जा सकता है। अतः उन तीनोंवाले न्यारे अन्य विषयको ग्रहण करनेवाली न्यारी न्यारी नयोंकी कल्पना करनेका प्रसंग कथमपि दुःखसे भी नहीं निवारा जा सकता है। अर्थात् जैनसिद्धान्त अनुसार द्रव्य अनेक हैं । एक एक द्रव्यमें अनन्ते गुण हैं । एक गुणमें त्रिकालसम्बन्धी अनन्त पर्यायें हैं । अथवा वर्तमान कालमें भी अनेक आपेक्षिक पर्यायें हो रही हैं। अनुजीवी गुणकी एक एक पर्यायमें अनेक अविभाग प्रतिच्छेद हैं । न जाने किस किस अनिर्वचनीय निमित्तसे किस किस गुणके कितने परिणाम हो रहे हैं । इस प्रकार पसरट्टेकी दूकान समान वस्तुके फैले हुये परिवारमेंसे चाहे जितनेका सम्मेलन कर अनेक विषय बनाये जा सकते हैं। ऐसी दशामें नियत विषयोंको जाननेवाले नयोंकी कोई व्यवस्था नहीं हो पाती है। अनवस्था दोष टल नहीं सकता है। सच पूछो तो द्रव्य और पर्यायोंका कथंचित् अभेद मान लेनेपर तीसरा, चौथा कोई सद्वान् ढूंढनेपर भी नहीं मिलता है। अतः दो नयोंके मान लेनेसे सर्व व्यवस्था बन जाती है। अनवस्था दोषको खल्प भी अवकाश नहीं प्राप्त होता है।