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________________ तत्वाचिन्तामणिः ३११ न्यायमार्ग रक्षित नहीं रह पाता है। देखिये, जल्प और वितंडासे उस प्रतिज्ञा वाक्यमें उठाये गये सम्पूर्ण बाधकोंका परिहार नहीं हो पाता है । क्योंकि वे जल्प या वितंडामें प्रवर्त रहे पण्डित तो छल, असमीचीन उत्तर, निग्रह करना आदिका उपक्रम लगानेमें तत्पर हो रहे हैं । अतः उन जल्प वितंडाओंसे संशय या विपर्यय उत्पन्न हो जाता है । तत्त्वनिर्णय नहीं हो पाता है। कारण कि वादी पण्डितके तत्राका निर्णय होनेपर भी यदि उसकी दूसरोंको जैसे तैसे किसी उपायसे चुप कर देने में ही प्रवृत्ति होगी तो वहां बैठे हुये प्राश्निक सभ्य उसके विषय यों संशय करने लग जाते हैं कि इस बादीके क्या तवोंका अध्यवसाय है ! अथवा क्या नहीं है ? तथा प्राश्निक पुरुष यों विपरीत ज्ञान कर बैठते हैं कि इस वादीके तत्र निर्णय है ही नहीं । क्योंकि स्वपक्षसिद्धिको मुखसे बोल रहे प्रतिवादीके केवल चुप कर देनेमें तो तस्वनिर्णयसे रहित हो रहे भी वादीकी प्रवृत्ति होना देखा जाता है । जैसे कि तखोंका उपछव माननेवाले वादीकी स्वयं तत्त्वनिर्णय नहीं होते हुये भी दूसरोंके चुप करनेमें प्रवृत्ति हो रही है । यही अवस्था जाल्पिक और वैतंडिककी है और तैसा होनेपर विश्वारशीळ प्रेक्षवान् पुरुषों में इसकी अप्रसिद्धि ही हो जावेगी । ऐसी दशा में सरकार पुरस्काररूप पूजा अथवा काम तो भला कैसे प्राप्त हो सकता है ! तुम्हीं विचारो । ततश्चैवं वक्तव्यं वादो जिगीषतोरेव तत्वाध्यवसाय संरक्षणार्थत्वादन्यथा तदनुपपत्तेः । पराभ्युपगममात्रा ज्जल्पवितंडावत्वात् निग्रहस्थानवत्त्वाच्च । न हि वादे निग्रहस्थानानि न संति । सिद्धांताविरुद्धः इत्यनेनापसिद्धांतस्य पंचावयवोपपन्न इत्यत्र पंचग्रहणान्न्यूनाधि - कयोरवयवोपपन्नग्रहणाद्धेत्वाभासपंचकस्य प्रतिपादनादष्टानां निग्रहस्थानानां तत्र नियमव्याख्यानात् । तिस कारण अबतक सिद्धि कराते हुये यों कहना चाहिये कि वाद ( पक्ष ) जीतने की इच्छा रखनेवाले दो वादी प्रतिवादियों का (में) ही प्रवर्तता है (साध्य ) । तत्त्वाध्यवसाय संरक्षण अर्थपना होनेसे ( हेतु ) अन्यथा यानी जिगीषुओंमें होने बिना वाद में वह तत्त्व निर्णयकी संरक्षकता नहीं होने पावेगी इस व्याप्तिको दिखाते हुये पहिला हेतु कहा है । तथा दूसरे नैयायिकों के केवळ स्वीकार करनेसे जल्प, वितंडा सहितपना होनेसे ( दूसरा हेतु ) अर्थात् - नैयायिकोंने जल्प और वितंडाका जिगीओंमें प्रवर्तना स्वयं इष्ट किया है। इनके धर्म वादमें भी रह जाते हैं। अथवा नैयायिकोंने तत्त्व निर्णय के रक्षक जल्प वितंडाओंकी जिगीषुओं में प्रवृत्ति मानी है । अतः जल्प और वितंडाको अष्टान्त समझो तथा निग्रहस्थानोंसे सहितपना होनेसे ( तीसरा हेतु ) यानी वादमें वादी प्रतिवादियों द्वारा तिरस्कार वर्धक या पराजयसूचक निग्रहस्थान उठाये जाते हैं । अतः सिद्ध होता है कि बाद परस्पर में एक दूसरेको जीतने की इच्छा रखनेवालोंमें प्रवर्तता है । वाद में निग्रह स्थान नहीं हैं, यह कोई नहीं समझ बैठे । क्योंकि वादके लक्षण में सिद्धान्त अविरुद्ध ऐसा पद पडा हुआ 1 1
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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