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________________ ३१० तचार्य को कवार्तिके प्रकृत हेतु से सिद्ध नहीं होता है तथा वितंडामें तो विशेष्य दल पक्ष प्रतिपक्ष परिग्रह और विशेषण दल प्रमाण तर्कसे साधना उलाहना आदिके नहीं घटित होनेसे तत्व निर्णयका संरक्षण अपना प्रकरण प्राप्त साधनेसे सिद्ध नहीं हो पाता है । अर्थात् - आचार्य मद्दाराजने पूर्व में वादही को तत्त्वनिर्णयका रक्षकपना साधनेके लिये जो वादके पूरे लक्षणको हेतु बनाकर अनुमान कहा था वह ठीक है। जल्प और वितंडामें हेतु नहीं ठहरता है । जिससे कि अनिष्टका साधन हो जाने से यह हेतु इष्टसाध्यके विघातको करनेवाला हो जाय । इस कारण वाद ही तत्व निर्णयके संरक्षण अर्थ उपयोगी होनेसे जीतने की इच्छा रखनेवाले पुरुषों में प्रवर्त रहा है । यह युक्त है । नल्प और वितंडा तो तत्रनिर्णय के रक्षक नहीं हैं । अतः जिगीषुओंमें नहीं प्रवर्तते हैं । jarat दूसरी बात है । उन जल्प वितंडाओं करके परमार्थ रूपसे तत्त्वनिर्णयका भळे प्रकार रक्षण होना असम्भव है । जैसे कि विद्वानों में प्रकृष्ट विद्वत्तापने की प्रसिद्धि आर्थिक लाभ, या यशोलाभ, तथा पूजा सत्कार ये जल्न वितंडाओंसे नहीं होते हैं । उसी प्रकार जल्प वितंडाओंसे तत्वनिर्णयकी रक्षा नहीं हो पाती है । अतः उक्त हेतु अन्यत्र नहीं रह कर वाद हीमें ठहरता है । उन करके तो निग्रह कर दिया जाता है । वह तत्त्वबुभुत्सा नहीं है । तस्याध्यवसायो हि तत्त्वनिश्चयस्तस्य संरक्षणं न्याय बळात्सकळ बाधकनिराकरणेन पुनस्तत्र बाधकमुद्भावयतो यथाकथंचिन्निर्मुखीकरणं चपेटादिभिस्तत्पक्ष निराकरणस्यापि तत्वाध्यवसाय संरक्षणत्वप्रसंगात् । न च जल्पवितंडाभ्यां तत्र सकळवाधकपरिहरणं छळजात्याद्युपक्रपपराभ्यां संशयस्य विपर्यासस्य वा जननात् । तत्वाध्यवसाये सत्यपि हि वादिनः परनिर्मुखीकरणे प्रवृत्तौ प्रानिकास्तत्र संशेरते विपर्ययस्यन्ति वा किमस्य तवा - ध्यवसायोस्ति किं वा नास्तीति । नास्त्येवेति वा परनिर्मुखीकरणपात्रे तत्वाध्यवसाय रहितस्यापि प्रवृत्तिदर्शनात्वोपपळववादिवत् तथा चाख्यातिरेव प्रेक्षावत्सु अस्य स्यादिति कुतः पूजालाभो वा ? तत्त्वका अध्यवसाय तो नियम करके तत्वोंका निश्चय करना है । उसका संरक्षण करना यह है कि प्रमाणोंकरके अर्थपरीक्षण स्वरूप न्यायकी सामर्थ्य से सम्पूर्ण बाधकों का निराकरण कर देना है । किन्तु फिर उसमें बाधक प्रमाणोंको उठा रहे प्रतिवादीका चाहे जैसे तैसे अन्याय या अनुचित मार्ग द्वारा बोक रोक देना संरक्षण नहीं अन्यथा दूसरेके मुखका बोल रोक देना तो थप्पड, घूंसा, मंत्रप्रयोग, मर्मच्छेदकवचन, चीक झपट्टा कर देना आदि निंध प्रयत्नों करके उस विद्वान् के पक्ष के निराकरणको भी तत्त्वनिर्णय रक्षकपनका प्रसंग आ जावेगा भावार्थ - प्रमाणोंद्वारा सकल बाधकोंका निराकरण कर देनेसे तत्वनिर्णयकी रक्षा होती है । चाहे जैसे मनमानी ढंगले किसीको निर्मुख कर देने से तस्त्रनिर्णय नहीं हो पाता है । नादिरशाही से
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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