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________________ तत्वार्यचिन्तामणिः पदार्थमें रक्त, मांस, मल, मूत्र, आदि भाषी पर्यायें यदि विद्यमान हैं तो किसी भी पदार्थका खाना पीना नहीं हो सकेगा । बडी अव्यवस्था मच जायगी एवं संसारी जीवोंकी वर्तमान में मुक्त अवस्था नहीं होते हुए भी जीवको सर्वदा मुक्त मानते हुए प्रकृतिको ही संसार होना कहना कापिलोंका विपर्यय है । १३७ पररूपद्रव्यक्षेत्रकालतः सर्ववस्त्वसत्तत्र कार्त्स्यतः सच्चवचनमाहार्यो विपर्ययः । सबैकान्वावलम्बनात्कस्यचित्प्रत्येतव्यः । प्रमाणतस्तथा सर्वस्यासत्वसिद्धेः । स्व न्यारे अन्य पदार्थोंके द्रव्य, क्षेत्र, काल भावोंकी अपेक्षा से सम्पूर्ण वस्तुएं असत् १ 1 घटके देश, देशांश, गुण, और गुणांशोंकी अपेक्षा पट विद्यमान नहीं है । आत्माके स्वचतुष्टयकी अपेक्षासे बट पदार्थ असत् है । फिर भी वां परिपूर्णरूपसे विद्यमानपनेका कथन करना दूसरा जाहार्य विपर्ययज्ञान हैं। " सर्व सत् " सम्पूर्ण पदार्थोंकी सर्वत्र सत्ताके एकान्त पक्षका अवलम्ब छेने से किसी एक ब्रह्माद्वैतवादी या सदेकान्तवादी पण्डितके यहां हो रहा उक्त विपर्ययज्ञान समझ लेना चाहिये । क्योंकि प्रमाण ज्ञानोंसे तिस प्रकार सम्पूर्ण पदार्थोंका सर्वत्र नहीं विद्यमानपना सिद्ध है । अर्थात्- - आत्मा बटस्वरूपकरके विद्यमान नहीं है। और आकाश आत्मपनेकरके कहीं भी नहीं वर्ष रहा है। परकीय रूपोंकरके किसी भी पदार्थकी कहीं भी सत्ता नहीं है । देशतोऽसतोऽसति सभ्य विपर्ययमुपदर्शयति । परकीय चतुष्टय से सम्पूर्ण बस्तुओंके असत् होनेपर परिपूर्णरूप से सत्र कथन करनेवाले आहार्य ज्ञानको अभी कह चुके हैं। अब एक देशसे असत् पदार्थका अविद्यमान पदार्थ में विद्यमानपनका कथन करनेवाले विपर्यय ज्ञानको प्रन्थकार दिखलाते हैं । सत्यसत्त्वविपर्यासाद् वैपरीत्येन कीर्तितात् । प्रतीयमानकः सर्वोऽसति सत्त्वविपर्ययः ॥ १७ ॥ पहिले ग्यारहवीं कारिका द्वारा सत् पदार्थमें असत् पनेका विपर्ययज्ञान बताया जा चुका है । उस कहे गये विपर्ययज्ञानसे विपरतिपनेकरके प्रतीत किया जारहा यह असत् पदार्थमें सत्पनेको कहनेवाला सभी विपर्ययज्ञान है । भावार्थ ग्यारहवीं वार्तिकसे पन्द्रहवीं वार्त्तिकतक पहिले सदमें reast कहनेवाला विपर्ययज्ञान कहा जा चुका है। किन्तु असद में पूर्णरूपसे या एक देशसे सपने को जाननेवाला यह विपर्ययज्ञान पूर्वोक्तसे विपरीत ( विभिन्न ) है। सत्को असत् कहनेवाढी पहिली प्रक्रियाको विपरीत (उल्टा ) कर यहां असंतुको सत् कहनेवाली प्रकियामें सभी पर सकते हो। 18
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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