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तत्वार्यश्लोकवार्तिके
सन्ते भी तथा कर्मोको बलात्कार से
उन अजीव आदि पदार्थोंमें विशेषरूप से पुण्यासव और पापात्र के होते सन्ते तथा पुण्य बन्ध और पापबन्ध के होते हुये एवं एकदेश संवर और सर्वदेशतः संवरके होते यथायोग्य अपने नियत कालमें हो रही निर्जरा और भविष्य में उदय आनेवाले वर्तमान उपक्रम में लाकर की गयी निर्जरा, इन तत्वों के होनेपर भी एवं तेरहवें, चौदहवें में गुणस्थान में तीर्थंकर प्रकृतिकी उदय अवस्था में जीवन्मुक्तनामक अर्हन्तपनास्वरूप मोक्षतत्व और अष्टक से सर्वथा रहित सिद्धपनास्त्ररूप परममोक्ष तत्व के प्रमाणोंसे सिद्ध होनेपर भी उन gora आदिकोंका असत्य कथन करते रहना किसी एक चार्वाकवादीको विपर्ययज्ञान हो रहा है । मिथ्याज्ञान के अनुसार ही ऐसे तत्र विपरीत रूपसे कथन किये जा सकते हैं। हां, यह विपर्ययज्ञान क्यों है ? इसका उत्तर इतना ही पर्याप्त है कि उन पुण्यःस्रव आदि तत्वोंकी सत्ताका पहिछे प्रकरणों में प्रमाणों द्वारा साधन किया जा चुका है।
एवं तदा मेदेषु प्रमाणसिद्धेषु तत्सत्सु तदसत्ववचनं विपर्ययो बहुधावबोद्धव्यः परीक्षाक्षमधिषणैरित्यळं विचारेण ।
इसी प्रकार उन जीव आदिकोंके भेदप्रमेदरूप अनेक तत्वोंके प्रमाणोंसे सिद्ध हो चुकनेपर उनका सद्भाव होते सन्ते भी पुन: मिध्यात्ववश उनका असत्व कथन करना, इस ढंगके बहुत प्रकार के विपर्ययज्ञान उन पुरुषोंके द्वारा समझ लेना चाहिये, जिनकी बुद्धि तत्त्व और तस्वाभासोंकी परीक्षा करने में समर्थ है। संक्षेपसे कहनेवाले इस प्रकरणमें मिथ्यापनके अवान्तर असंख्य भेदोंको कहांतक गिनाया जाय । इस कारण विपर्ययपनके विचारसे इतने ही करके पूरा पडो । बुद्धिमानों के प्रतिहार्य कुश्रुतके कतिपय भेदोंका उपलक्षणसे निदर्शन कर दिया गया है।
पररूपादितोशेषे वस्तुन्यसति सर्वथा ।
सत्त्ववादः समाम्नातः पराहार्यो विपर्ययः ॥ १६ ॥
स्वरूपचतुष्टयसे पदार्थोंका सद्भाव होनेपर उनका असत्व कहना ऐसा " तद्वति तदभावप्रकारकज्ञानं विपर्ययः " तो कह दिया है । अब " तदभाववति तत्प्रकारकज्ञानं विपर्ययः " इसको कहते हैं । पररूप यानी परकीय भाव, द्रव्य, क्षेत्र आदिसे संपूर्ण पदार्थोंके असद्भाव होनेपर उनका सर्वथा सद्भाव मानते जाना दुसरा आहार्य विपर्यय भले प्रकार ऋषि आम्नायसे माना हुआ चला आ रहा है । भावार्थ - जैसे कि जळपर्याय हो जानेपर उस पुद्गलकी अग्निपर्याय उस समय नहीं है, फिर भी " सर्व सर्वत्र विद्यते " इस आग्रहको पकडकर सरोवरमें अनिकी सत्ता कहना सांख्योंका विपर्ययज्ञान है । इस विपर्यय अनुसार किसीको चोरी या व्यभिचारका दोष नहीं लगना चाहिये । जब कि सभी खियां या वस्तुयें पूर्वजन्मोंमें सब जीवोंकी हो चुकी है। भोजन या पेय
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