________________
तत्वार्थचिन्तामणिः
पर्यायमात्रगे नैते द्रव्येष्विति विशेषणात् ।
द्रव्यगे एव तेऽसर्वपर्यायद्रव्यगोचरे ॥ ६॥ .
विषयोंका द्रव्येषु इस प्रकार पहिला विशेषण लगा देनेसे ये मतिज्ञान श्रुतज्ञान दोनों केवळ पर्यायोंको ही जाननेवाले नहीं है, यह बात सिद्ध हो जाती है । अर्थात्-मतिबान और श्रुतज्ञान दोनों ये द्रव्योंको भी जानते हैं । बौद्धोंका केवल पर्यायोंको ही मानने या जाननेका मन्तव्य ठीक नहीं हैं । विना द्रव्यके निराधार हो रही पर्याय ठहर नहीं सकती हैं। जैसे कि भीत या कागजके विना चित्र नहीं ठहरता है। तथा वे मति श्रुतज्ञान द्रव्योंमें ही प्राप्त हो रहे हैं, यामी द्रव्योंको ही जानते हैं, पर्यायोंको नहीं, यह एकान्त भी प्रशस्त नहीं है । क्योंकि असर्वपर्यायेषु ऐसा दूसरा विशेषण भी लगा हुआ है । अतः कतिपय पर्याय और सम्पूर्ण द्रव्य इन विषयोंमें नियत हो रहे मतिकान श्रुतज्ञान है, यह सिद्धान्त निकल आता है।
एतेष्वसर्वपर्यायेष्वित्युक्तेरिष्टनिर्णयात् । तथानिष्टौ तु सर्वस्य प्रतीतिव्याहतीरणात् ॥७॥
इन कतिपय पर्यायस्वरूप विषयोंमें मतिश्रुतज्ञान नियत हैं। इस प्रकार कह देनेसे इष्ट पदार्थका निर्णय हो जाता है । अर्थात् -इन्द्रियजन्यज्ञान, अनिन्द्रियजन्यज्ञान, मतिपूर्वक श्रुतज्ञान ये ज्ञान कतिपय पर्यायोंको विषय कर रहे हैं, यह सिद्धान्त सभी विचारशाली विद्वानोंके यहाँ अभीष्ट किया है । यदि तिस प्रकार इन दो ज्ञानों द्वारा कतिपय पर्यायोंका विषय करना इष्ट नहीं किया जायगा, तो सभी वादी-प्रतिवादियोंके यहाँ प्रतीतियोंसे व्याघात प्राप्त होगा, इस बातको हम कहे देते हैं।
मतिश्रुतयोर्ये तावद्वारार्थानालम्बनस्वमिच्छन्ति तेषां प्रतीतिन्याहतिं दर्शयमाह ।
जो वादी सबसे आगे खडे होकर मतिज्ञान और श्रुतज्ञानका बहिरंग अर्थीको आलम्बन नहीं करनेवालापन इच्छते हैं, उनके यहां प्रतीतियोंसे आ रहे स्वमतव्याघात दोषको दिखलाते हुये आचार्य महाराज कहते हैं सो सुनो।
मत्यादिप्रत्ययो नैव बाह्यार्थालम्बनं सदा । प्रत्ययत्वाद्यथा स्वप्नज्ञानमित्यपरे विदुः ॥८॥ तदसत्सर्वशून्यत्वापत्तेर्बाह्यार्थवित्तिवत् । खान्यसंतानसंविचेरभावाचदभेदतः ॥ ९ ॥