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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके मति आदिक ज्ञान (पक्ष ) सदा ही बहिरंग भर्चाको विषय करनेवाले नहीं हैं ( साम्य )। हानपना होनेसे ( हेतु ), जैसे कि स्वप्नज्ञान ( अन्वयदृष्टान्त ) । इस प्रकार अनुमान बनाकर दूसरे विद्वान् बौद्ध कह रहे हैं, या ज्ञातकर बैठे हैं, सो, उनका वह कहना सर्वथा असत्य है । क्योंकि यों तो सम्पूर्ण पदार्थोके शून्यपनेका प्रसंग आ जावेगा । घट, पट आदि बहिरंग अयोंके ज्ञान समान अन्तस्तत्त्व माने जा रहे अपना और अन्य संतानोंका सम्यग्ज्ञान भी निरालम्बन हो जायगा । घट, पट, आदिके ज्ञानोंमें और स्त्रसंतान परसंतानोंको जाननेवाले ज्ञानोंमें ज्ञानपना भेदरहित होकर विद्यमान है । देखिये, घट, पट, आदिकके समान स्त्र, पर, सन्तान भी बहिरंग है, कोई भेद नहीं है । चालिनी न्याय अनुसार देवदत्त की स्वसन्तान तो जिनदत्तके ज्ञानकी अपेक्षा बहिरंग है। और जिनदत्तकी स्वतन्तान देवदत्तके ज्ञान की अपेक्षा बाह्य अर्थ है । तथा ज्ञानकी अपेक्षा कोई भी बेय बाह्य अर्थ हो जाता है । अतः स्वसन्तान और परसन्तानके ज्ञानोंका भी निरालम्बन होनेके कारण अमाव हो जानेसे बौद्धोंके यहां सर्वशून्यपनेका प्रसंग प्राप्त होगा। ऐसी दशामें अनेक आत्माओंके सन्तानस्वरूप विज्ञानाद्वैतकी यानी अन्तस्तत्त्वकी अक्षुण्ण प्रतिष्ठा कैसे रह सकती है ! सो तुम ही जानों। मतिश्रुतप्रत्ययाः न बाह्यार्थालंबनाः सर्वदा प्रत्ययत्वात्स्वप्नपत्ययवदिति योगाचार स्तदयुक्तं, सर्वशून्यत्वानुषंगात् । बाह्यार्थसंवेदनवत्स्वपरसंतानसंवेदनासम्भवाग्राहकज्ञानापेक्षया वसन्तानस्य परसन्तानस्य च बाह्यत्वाविशेषात् । ___ सम्पूर्ण मतिद्वान और श्रुतज्ञान ( पक्ष ) बहिरंग घट, पट आदि अर्थीको सदा ही विषय करनेवाले नहीं हैं ( साध्य ) ज्ञानपना होनेसे (हेतु ) जैसे कि स्वप्नका ज्ञान विचारा बहिर्भूत नदी पर्वत, आदिको ठीक ठीक आलम्बन करनेवाला नहीं है, इस प्रकार योगाचार बौद्ध कह रहे है। सो उनका कहना अयुक्त हैं । क्योंकि यों तो सभी अन्तरंग तत्त्व, ज्ञान या स्वसंतान, परसन्तान इन सबके शून्यपनका प्रसंग हो जावेगा । बहिरंग अोंके सम्वेदनसमान अपनी शानसन्तान और दूसरेकी ज्ञानसन्तानके सम्बेदनोंका भी असम्भव हो जायगा। क्योंकि स्वसन्तान और परसन्तानके प्राहक ज्ञानोंकी अपेक्षा करके स्वसन्तान और परसन्तानको बाह्यपना विशेषतारहित है। अर्थात्ज्ञानोंको क्षणिक माननेवाले बौद्ध पूर्वापर क्षणवर्ती ज्ञानोंकी पंक्तिको ज्ञानसंतान कहते हैं। भले ही सन्तान अवस्तु है। यों घटज्ञानकी अपेक्षा जैसे घट बाह्य अर्थ है, उसी प्रकार स्वकीय ज्ञानसन्तान और परकीय ज्ञानसन्तानको जाननेवाले ज्ञानकी अपेक्षा स्वज्ञानसन्तान और परविज्ञानसन्तान भी बहिरंग अर्थ है । जब कि ज्ञान बहिरंग अर्योको विषय नहीं करते हैं, तो अपने ज्ञानोंकी सन्तान अथवा अन्य देवदत्त, जिनदत्त, स्वरूप ज्ञान सन्तान ये अन्तरंग पदार्थ भी उड गये । क्योंकि ये भी बहिरंग बन बैठे । ऐसी दशामें सर्वशून्यवाद छा गया, वही तो हमने दोष दिया था।
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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