________________
तत्वार्यश्लोकवार्तिके
" विषयेभ्यः " ऐसा पंचमी विभक्तिका बहुवचनान्तपद कहा गया है। उसकी तिस ही प्रकार पंचम्यन्त विषय शब्दकी अनुवृत्ति हो जानेका प्रसंग प्राप्त होता है, अन्यथा नहीं । इस प्रकार माशंका होनेपर आचार्यमहाराज उत्तर कहते हैं।
द्रव्येष्विति पदेनास्य सामानाधिकरण्यतः । तद्विभक्त्यन्ततापत्तेर्विषयेष्विति बुध्यते ॥४॥
इस विषय शब्दका " द्रव्येषु " इस प्रकार सप्तमी विभक्तिवाले पदके साथ समान अधिकरणपना हो जानेसे उस सप्तमी विभक्तिके बहुवचनान्तपनेकी प्राप्ति हो जाती है । इस कारण "विषयेषु" इस प्रकार विषयोंमें यह अर्थ समझ लिया जाता है।
किं पुनः फळं विषयेष्विति सम्बन्धस्येत्याह । पुनः किसीका प्रश्न है कि " विषयेषु " इस प्रकार खींचतानकर सप्तम्यन्त बनाये गये पदके सम्बन्धका यहां फल क्या है ! इस प्रकार प्रश्न होनेपर आचार्य महाराज समाधिवचन कहते हैं।
विषयेषु निबन्धोऽस्तीत्युक्ते निर्विषये न ते ।
मतिश्नुते इति ज्ञेयं न चानियतगोचरे ॥५॥
मतिज्ञान श्रुतज्ञानोंका द्रव्य और कतिपयपर्यायस्वरूप विषयोंमें नियम हो रहा है । इस प्रकार कथन करचुकनेपर वे मतिज्ञान, श्रुतज्ञान दोनों विषयरहित नहीं हैं, यह समझ लिया जाता है। अथवा दूसरा प्रयोजन यह भी है कि नियत नहीं हो रहे, चाहे जिस किसी भी पदार्थको विषय करनेवाले दोनों ज्ञान नहीं हैं । किन्तु उन दोनों ज्ञानोंका विषय नियत हो रहा है। भावार्थतत्वोपाळववादी या योगाचार बौद्ध अथवा शून्यवादी विद्वान् ज्ञानोंको निर्विषय मानते हैं। घट, पट, नीला, खट्टा, अग्नि, व्याप्ति, वाच्यार्य आदिके झानों में कोई बहिरंग पदार्थ विषय नहीं हो रहा है। स्वप्नज्ञान समान उक्त ज्ञान भी निर्विषय हैं। अथवा कोई कोई विद्वान् मतिश्नुतज्ञानोंके विष. योंको नियत हो रहे नहीं स्वीकार करते हैं। उन दोनों प्रकारके प्रतिवादियों का निराकरण करनेके लिये उक्त सूत्र कहा गया है । जिसमें कि विषयपदकी पूर्वसूत्रसे अनुवृत्तिकर सामर्थ्यसे विषयेषु ऐसा सम्बन्ध कर लिया गया है।
तर्हि द्रव्येष्वसर्वपर्यायेष्विति विशेषणफळं किमित्याह ।
तो फिर अब यह बताओ ! कि विषयेषु इस विशेष्यके दव्येषु और असर्वपर्यायेषु इन दो विशेषणोंका फल क्या है ! इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर वाचार्य महाराज समाधान कहते हैं।