SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 369
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तवाचिन्तामणिः ३५७ दूसरे हेतुके प्रयुक्त किये जानेपर पूर्वके हेतुको हेतुपनेकी हानि हो जाती है। हां, बौद्ध अनुमान में प्रतिज्ञाका प्रयोग करना आवश्यक नहीं मानते हैं । यह वादी अपने प्रयुक्त किये गये इन्द्रियज्ञानप्राह्मत्व हेतुसे उस असर्वगतपने करके शद्वके अनित्यत्वपनेको कहता है । इस प्रकार कहने से तो हेत्वन्तर यानी दूसरा हेतु हो जायगा, प्रतिज्ञान्तर तो नहीं हुआ। क्योंकि विचारशालिनी प्रज्ञाको धारनेवाके विद्वानों के यहां प्रतिज्ञा या प्रतिज्ञान्तरका कहीं भी प्रयोग करना नहीं देखा जाता है । जो अर्थापत्ति या सामर्थ्य प्रतिज्ञावाक्यको नहीं समझ सकते हैं, उन जड बुद्धियोंका तो तत्वोंके विचार करने में अधिकार नहीं है। हां, विरुद्ध, व्यभिचार, आदि हेत्वाभासों का प्रयोग करना तो विशिष्ट विद्वानोंके यहां भी किसी एक विभ्रमके हो जानेसे वहां सम्भव जाता है । इस प्रकार कोई अन्य बौद्ध कह रहे हैं । अब आचार्य कहते हैं कि उन बौद्धोंका वह कहना भी प्रशंसनीय नहीं है कारण कि: प्रतिज्ञातार्थसिद्धयर्थं प्रतिज्ञायाः समीक्षणात् । भ्रांतैः प्रयुज्यमानायाः विचारे सिद्धहेतुवत् ॥ १३५ ॥ प्राज्ञेोपि विभ्रमाद्ब्रूयाद्वादेऽसिद्धादिसाधनम् । स्वपक्षसिद्धिर्येन स्यात्सत्त्वमित्यतिदुर्घटम् ॥ १३६ ॥ भ्रान्त पुरुषकरके प्रतिज्ञा किये गये पदार्थ की सिद्धिके लिये विचारकोटिमें मुख द्वारा प्रयुक्त की गयी अन्य प्रतिज्ञा भी बोली जा रही देखी जाती है । जैसे कि पूर्वहेतुकी सिद्धिके लिये दूसरा सिद्धहेतु कह दिया जाता है । बुद्धिमान् पुरुष भी कदाचित् विभ्रम हो जानेसे वादमें असिद्ध, विरुद्ध, आदि हेतुको कह बैठेगा । किन्तु जिस हेतु करके स्वपक्षकी सिद्धि होगी, उस हेतुका 1 प्रशस्तपना निर्णीत किया जावेगा । इस कारण बौद्धोंका कहना कथमपि घटित नहीं हो पाता अत्यन्त दुर्घट है । ततो प्रतिपत्तिवत्प्रतिज्ञांतरं कस्यचित्साधनसामर्थ्यापरिज्ञानात् प्रतिज्ञाहानिवत् । तिस कारण किसी एक वादीको साधनकी सामर्थ्यका परिज्ञान नहीं होनेसे प्रतिज्ञाहानि के समान प्रतिज्ञान्तर नामक निग्रहस्थानकी प्रतिपत्ति नहीं हो पाती है । अप्रतिपत्तिका अर्थ आरम्भ करने योग्य कार्यको अज्ञानप्रयुक्त नहीं करना या पक्षको स्वीकार कर उसकी स्थापना नहीं करना अथवा दूसरे सन्मुखस्थित विद्वान् के द्वारा स्थापित किये गये पक्षका प्रतिषेध नहीं करना और प्रतिषेध किये जा चुके स्वपक्षका पुनः उद्धार नहीं करना, इतना है । " अविज्ञातार्थ " या अज्ञाननिप्रहस्थानस्वरूप अप्रत्तिपत्तिका अर्थ कर पुनः उपमानमें वति प्रत्यय करना तो क्लिष्ट कल्पना है ।
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy