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________________ ३५६ तत्वार्यकोकवार्तिक देता है कि जो यह प्रसिद्ध शब्द क्या घटके समान अव्यापक है ? अथवा क्या सामान्य पदार्थके समान सर्वव्यापक है ! इसका तुम प्रतिवादी उत्तर दो । यदि घटके समान शब्द असर्वगत है, तब तो उस घटके समान ही वह शब्द अनित्य हो जाओ, इस प्रकार वादी कह रहा है । आचार्य कहते हैं अथवा भाग्यकार कहते हैं कि सो यह वादी शब्दके व्यापकपन और अव्यापकपन धर्मोके विकल्पसे उस प्रतिवात अर्थका कथन करता है । यह कथन वादीका दूसरी प्रतिज्ञा करना हुषा । क्योंकि शब्द अनित्य है, इस प्रतिज्ञासे अव्यापक अनित्य शब्द है, इस प्रतिज्ञाका भेद है । तिस कारण यह वादीका निग्रहस्थान है। क्योंकि वादीको अपने प्रयुक्त हेतुकी सामर्थ्यका परिज्ञान नहीं है। उत्तरकालमें की गयी दूसरी प्रतिज्ञा तो पहिली प्रतिज्ञाको नहीं साध देती है। यदि ऐसा होने लगे तो अतिप्रसंग हो जायगा । अर्थात्-चाहे जो भिन्न प्रतिज्ञा चाहे जिस साध्यको साध देवेगी और यो शब्दके अनित्यपनकी प्रतिज्ञा पर्वतमें अग्निको भी साध देवे। अतः सिद्ध होता है कि प्रतिज्ञान्तर करना वादीका निग्रहस्थान है। इस प्रकार दूसरे नैयायिक विद्वानोंकी अपने सिद्धान्त अनुसार चेष्टा हो रही है। अत्र धर्मकीः षणमुपदर्शयति । यहाँ प्रतिज्ञान्तरमें धर्मकीर्तिके द्वारा दिये गये दूषणको श्री विद्यानन्द आचार्य निम्नलिखित बार्तिकों द्वारा दिखाते हैं। नात्रेदं युज्यते पूर्वप्रतिज्ञायाः प्रसाधने । प्रयुक्तायाः परस्यास्तद्भावहानेन हेतुवत् ॥ १३१ ॥ तदसर्वगतत्वेन प्रयुक्तादेंद्रियत्वतः । शद्वानित्यत्वमाहायमिति हेत्वंतरं भवेत् ॥ १३२ ॥ न प्रतिज्ञांतरं तस्य कचिदप्यप्रयोगतः। प्रज्ञावतां जडानां तु नाधिकारो विचारणे ॥ १३३ ॥ विरुद्धादिप्रयोगस्तु प्राज्ञानामपि संभवात् । कुतश्चिद्विभ्रमात्तत्रेत्याहुरन्ये तदप्यसत् ॥ १३४ ॥ धर्मकीर्ति बौद्ध कहते हैं कि यहां प्रतिज्ञान्तर निग्रहस्थानमें यह नैयायिकोंका कथन करना युक्त नहीं पड़ता है। क्योंकि पहिली प्रतिज्ञाके द्वारा अच्छा साध्य साधन करनेपर पुनः प्रयुक्त की गयी उत्तरवर्तिनी दूसरी प्रतिज्ञाको उस प्रतिज्ञापनेकी हानि हो जाती है, जैसे कि विरुद्ध
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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