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________________ १३८ तत्त्वाय कोकवार्तिके marinemamaanmmmmssement नागपाशबन्ध, ऐसे पप हैं, यदि उनमें अनुमानके प्रतिज्ञा आदि अवयव पाये जावें या उनको परार्यानुमान वाक्य बना दिया जाय तो ऐसे काव्य भी पत्रके नामसे कहे जा सकते हैं । जैसे कि " जानक्या, रघुनाथस्य कंठे कमळमालिका, भ्रमन्ति पण्डिताः सर्वे प्रत्यक्षेपि क्रियापदे " यहां प्रति उपसर्ग पूर्वक क्षिप् धातुसे कर्ममें लुङ् लकारकी क्रिया " प्रत्यक्षेपि " गूढ हो रही है । " नयमान क्षमामान नमामार्याति नाशन, नशनादस्यनो येन नयेनोरोरिमापन" पल्लवकमहिता, " अनयो कुप्यदशयः षककेमोहो नष्टोभियोमापः " इत्यादि काव्योंके भी अनुमान वाक्य बना देनेपर पत्रपना वहां घटित हो जाता है । यदि कोई यो प्रश्न करे जब कि गूढ अर्थवाले पदोंके समुदाय और अपने इष्ट अर्थको साधनेवाले तथा प्रसिद्ध अवयववाले अबाधित वाक्यको पत्र कहते हैं, तो लिखे हुये पत्ते (कागज) को पत्रपना कैसे आ सकता है । वह मुख्यपत्र तो कानोसे ही सुना जा सकता है। हाथमें नहीं लिया जा सकता है । और आंखोंसे भी नहीं देखा जा सकता है । इसके उत्तरमें आचार्य महाराज कहते हैं, कि यह उपचार किये गयेका पुनः दुबारा उपचार है। वर्ण समुदाय आत्मक पदोंके समूहविशेषस्वरूप और कानोंसे सुनने योग्य वाक्यका लिखनेस्वरूप लिपिमें मनुष्यों करके आरोप कर देनेसे उपचार किया गया है। अर्थात-उच्चारणके पीछे लिखने योग्य वर्णलिपिमें पहिला वाक्यपनेका उपचार है । औपलिपिमें उपचार किये गये वाक्यका भी उस पत्र (कागज) में स्थित रहनेके कारण दूसरा उपचार किया गया है। जैसे कि कुएमें गिराने योग्य पापको कौपीन कहते हैं । पापके कारण लिंगको भी उपचारसे कौपीन कह देते हैं । उस लिंगके आच्छादनका वस्त्र होनेसे लंगोटीको भी उपचरित उपचारसे " कौपीन " कह दिया जाता है। अथवा सौधर्म इन्द्रसे न्यारे हो रहे पुरुषको इन्द्र नामसे कह देते हैं। और पुनः वस्त्र या कागजपर लिखे गये इन्द्र चित्र (तसवीर ) को भी इन्द्र कह दिया जाता है । अथवा अकारान्त पदसे नाम धातुमें रूप बनाकर किप् प्रत्यय करनेपर पुनः " अतः " इस सूत्रसे अकारका लोप करनेपर दकारान्त पद शब्द बन जाता है । या पद गतौ धातुसे किप् प्रत्यय करनेपर दकारान्त पद शब्द बना लिया जाय " पदानि त्रायते गोप्यन्ते रक्षन्ते परेभ्यः यस्मिन् वाक्ये तत् पत्रं " पद+त्र ( त्रैङ् पालने ) इस व्युत्पत्तिसे मुख्य ही वाक्यको पत्रपना कह दिया जाता है। दूसरी बात यह है कि जैसे रत्नोंकी रक्षा संदूक या तिजौरीमें हो जाती है, उसी प्रकार पदोंकी रक्षा कागजमें लिख जानेपर हो जाती है। तभी तो हजारों, सैकडो वर्ष पुराने बाचार्यवाक्योंकी आजतक भी लिखित ग्रन्थोंमें रक्षा हो सकी है। ऐसे पत्रके कहीं दो ही अवयव प्रयुक्त किये जाते हैं । उतनेसे ही साध्यकी सिद्धि हो जाती है । उसको यों समझ लीजियेगा "स्वान्तमासितभूत्याद्ययन्तात्मतदुमान्तवाक् । परान्तद्योतितोद्दीप्तमितीत स्वात्मकस्वतः "(अनुष्टप् छन्द) इस अनुमानमें प्रतिज्ञा और हेतु दो ही अवयव कहे गये हैं। इस गूढवाक्यका बर्थ इस प्रकार है कि स्वार्यमें अण् प्रत्यय कर अन्त ही भान्त कहा जाता है। प्र, परा, अप, सम्, अनु आदि उपसर्गौके पाठकी अपेक्षा सु उपसर्गके अन्तमें उत् उपसर्ग पढा गया है। उस
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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