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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
न हि पत्रवाक्यविदर्ये तस्य वृत्तिस्तत्सिद्धेश्व पत्रं दातुर्जय आदातुः पराजयस्वाभिराकरणं वा तदादातुर्जयो दातुः पराजय इति च द्वितीयार्थेपि तस्य वृचिसंभवान, प्रमाणतस्तथापि प्रतीते: समानप्रकरणादिकत्वाद्विशेषाभावात्।।
नैयायिक यदि यों कहें कि गूढ पत्रद्वारा समझाने योग्य जिस अर्यमें उस वादीकी वृत्ति है, उसकी सिद्धि कर देनेसे तो गूढ पत्रको देनेवाले वादीका जय होगा और पत्रका ग्रहण करनेवाले प्रतिवादीका पराजय हो जायगा । तथा उस पत्रलिखित अर्थका प्रतिवादी द्वारा निराकरण कर देनेपर उस पत्रको लेनेवाले प्रतिवादीका जय हो जायगा और पत्रको देनेवाळे वादीका पराजय हो जायगा । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार नैयायिकोंको नहीं कहना चाहिये । क्योंकि गूढ पत्रके कई अर्थ सम्भव जाते हैं । अतः दूसरे अर्थमें भी उस वादीको वृत्ति होना सम्भव जाता है। क्योंकि प्रकरणोंसे तिस प्रकार भी प्रतीत हो रहा है। प्रकरण, तात्पर्य, अवसर, माकांक्षा गादिकी समानता भी मिल रही है। कोई विशेषता नहीं है कि यही अर्थ पकडा जाय, दूसरा नहीं लिया जाय । भावार्य-कोई कोई दक्ष (चानक ) वादी अपने गूढपत्रमें कतिपय अर्थोका सनिवेश कर देता है । वह मनमें विचार लेता है कि यदि प्रतिवादी इस विवक्षित अर्थका निराकरण करेगा, तो मैं अपने गूढपत्रका उससे न्यारा दूसरा अर्थ अभीष्ट कर लूंगा । इसका खण्डन कर देगा तो उसको अभीष्ट कर लूंगा । पदार्थ अपने पेटमें विरुद्ध सदृश हो रहे अनेक अर्थोको धार रहा है। प्रमाण भी उन अनेक अर्थीको साधनेमें हमारे सहायक हो जायेंगे । प्रकरण, योग्यता आदिक भी अनेक अर्थोके बहुत मिल जाते हैं। बतः स्वपक्षकी सिद्धि कर देनेसे ही जय होना मानो, अन्य प्रकारोंका मानना प्रशस्त नहीं है। श्री प्रभाचन्द्राचार्यने परीक्षामुखकी टीका प्रमेयकमळमार्तण्डमें पत्रके विषयमें यों कथन किया है कि परीक्षामुख मूल प्रन्थको रचनेवाले श्री माणिक्यनन्दी आचार्यने " सम्भवदन्यद् विचारणीय " इस अन्तिम सूत्रद्वारा पत्रका लक्षण भी अन्य प्रकरणोंके सदृश विचारवान् पुरुषोंकरके विचारणीय सम्भावित कहा है। लिखित शास्त्रार्थके अवसरपर चतुरंग वादमें पत्र देने नेका आलम्बन करना अपेक्षणीय है। अतः उस पत्रका लक्षण अवश्य कहना चाहिये । जबतक उसका स्वरूप नहीं जाना जायगा, तबतक पत्रका सहारा लेना जय करानेके लिये समर्थ नहीं हो सकता है। " स्वामिप्रतार्थसाधनानवधगूढपद समूहात्मकं प्रसिद्धाषयवलक्षणं वाक्यं पत्रम् ” यह पत्रका लक्षण है। अपने अभीष्ट अर्थको साधनेवाले निर्दोष और गूढ पदोंके समुदायस्वरूप तथा अनुमानके प्रतिज्ञा मादिक अवयवोंसे सहित हो रहे वाक्यको पत्र कहते हैं । जो वाक्य अपने अभिप्रेत अर्थका साधक नहीं है, या दोषयुक्त है, अथवा अधिक स्पष्ट अर्थवाले सरल पदोंसे युक्त है, ऐसा पत्र निर्दोष पत्र नहीं है । अन्यथा सभी चिट्ठी, पत्री, कहानी, बही, उपन्यास, सरल काव्य, भादिक पत्र हो जायेंगे, जो कि इष्ट नहीं है । जिन काव्योंमें क्रियापद गूढ है, अथवा चक्रबन्ध, पनवन्ध