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________________ तत्वार्याचन्तामणिः ४१७ न्यायदर्शनमें निग्रहस्थानोंके आगे पीछेका क्रम यहां कुछ दूसरा होगया है। अस्तु, जो भी नैयायिकोंने मतानुज्ञाका लक्षण यह कहा था कि दूसरे द्वारा प्रेरणा किये गये दोषको स्वीकार कर उसका उद्धार नहीं करते हुये परपक्षमें भी उसी दोषका प्रसंग दे देना मतानुज्ञा निग्रहस्थान है। दूसरेके मतको पीछे स्वीकार कर लेना यह मतानुज्ञा शद्बकी निरुक्ति है । जैसे मीमांसकने कहा कि शद्ध नित्य है (प्रतिज्ञा ), श्रवण इन्द्रिय द्वारा ग्राह्य होनेसे (तु ) यों कह चुकनेपर नैयायिकने मीमांसकके यहां मानी गयी वायुस्वरूप ध्वनिओं करके श्रावणत्व हेतुमें व्यभिचार हेत्वाभास उठाया । ऐसी दशामें मीमांसकने अपने ऊपर आये दोषका उद्धार तो नहीं किया, किन्तु नैयायिकोंके शद्ध अनित्य है,कृतक होनेसे,इस अनुमानमें भी हेत्वाभास उठा दिया ऐसी दशामें यह मीमांसक मतानुज्ञा" नामक निग्रहस्थानसे निगृहीत हो जाता है । न्यायभाष्यकार यों ही वखानते हैं, कि जो दाक्षिणात्य शास्त्री दूसरेके द्वारा जड दिये गये दोषका उद्धार नहीं कर भापके यहां मी यही दोष समान रूपसे लागू हो जाता है, इस प्रकार कह देता है इसका वह मतानुबा निग्रहस्थान हो जाता है। इस प्रकार नैयायिकोंका कहना है । आचार्य कहते हैं कि वह निग्रहस्थान भी परीक्षा किया जा चुका या परीक्षामें निति हो चुका नहीं है। इस कारण हम उसकी परीक्षा करते हैं। सो आप नैयायिक सुन लीजियेगा। स्वपक्षे दोषमुपयन् परपक्षे प्रसंजयन् । मतानुज्ञामवाप्नोति निगृहीति न युक्तितः ॥ २५१ ॥ द्वयोरेवं सदोषत्वं तात्त्विकैः स्थाप्यते यतः। पक्षसिद्धिनिरोधस्य समानत्वेन निर्णयात् ॥ २५२॥ " स्वपक्षदोषाभ्युपगमात् परपक्षदोषप्रसंगो मतानुज्ञा " इस गौतमसूत्रके अनुसार दूसरेके द्वारा कहे गये दोषका अपने पक्षमें स्वीकार कर उसका उद्धार नहीं करता हुआ जो वादी दूसरेके पक्षमें भी समान रूपसे उसी दोषको उठा रहा है, वह पण्डित मतानुज्ञा नामक निग्रहस्थानको प्राप्त हो जाता है । आचार्य कहते हैं कि यह नैयायिकोंका मन्तव्य युक्तियोंसे मिणांत नहीं हो सका । क्योंकि इस प्रकार तो दोनों ही वादी प्रतिवादियोंका दोषसहितपना तत्त्ववेत्ता विद्वानोंकरके व्यवस्थापित कराया जाता है। कारण कि दोनोंके यहां अपने अपने पक्षकी सिद्धि नहीं करना समानपनेसे निश्चय की जा रही है। श्रवण इन्द्रियसे ग्राह्य होना हेतुसे शके निस्यपनको मीमांसक सिद्ध नहीं कर सका है । जबतक किसी एकके पक्षकी सिद्धि नहीं होयगी, तबतक वह जयी नहीं हो सकता है। अनैकांतिकतैवेवं समुद्भाव्येति केचन । हेतोरवचने तच्च नोपपत्तिमदीक्ष्यते ॥ २५३ ॥ 63
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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