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________________ ४१८ तत्वार्थचोकवार्तिके तथोत्तराप्रतीतिः स्यादित्यप्याग्रहमात्रकं । सर्वस्याज्ञानमात्रत्वापत्तेदोषस्य वादिनोः ॥ २५४ ॥ संक्षेपतोन्यथा कायं नियमः सर्ववादिनाम् । हेत्वाभासोत्तरावित्ती कीर्तेः स्यातां यतः स्थितेः ॥ २५५॥ कोई विद्वान् मतानुज्ञाके विषयमें यों विचार करते हैं कि इस प्रकार तो हेतुका अनैकान्तिकपना ही भले प्रकार उठाना चाहिये । पुरुषपना होने से यह हिंसक है, जैसे कि कसाई हिंसक होता है । इस प्रकार कहनेपर जो यों कह रहा है कि तू भी हिंसक है । वह पुरुष व हेतुके व्यभिचार दोषको उठा रहा है। अतः मतानुज्ञा निग्रहस्थान उचित नहीं है। ऐसे किन्हीं के कथनपर आचार्य कहते है कि हेतुका कथन नहीं किये जानेपर वह अनैकान्तिकपन उठाना तो युक्ति युक्त नहीं देखा जाता है। अर्थात-जहां हेतु नहीं कहा गया है और मतानुज्ञाका अवसर है,वहाँ केचित्की परीक्षा करना उपयोगी नहीं ठहरेगा। यदि कोई यों कह देखेंगे कि तिस प्रकारके अवसरपर उत्तरकी प्रतिपत्ति हो जायगी । अतः अप्रतिभा या अज्ञान निग्रह उठा दिया जायगा । आचार्य कहते हैं कि यह भी उनका केवल आग्रह ही है । क्योंकि यों तो वादी प्रतिवादियोंके प्रतिज्ञाहानि, प्रतिज्ञान्तर, अननुभाषण, अप्रतिभा आदि सभी दोषोंको केवळ अज्ञानपनेका ही प्रसंग हो जावेगा । अनेक दोषोंकी गिनती करना व्यर्थ पडेगा । अन्यथा सम्पूर्ण वादियोंके यहां संक्षेपसे यह नियम करना कहां बनेगा कि दोषोंकी गणना करनेसे यशकी अपेक्षा हेत्वाभास और उत्तराप्रतिपत्ति दो दोष समझे जावें । जिससे कि उपर्युक्त व्यवस्था हो जाय । अर्थात्-समी वादियों के यहां संक्षेपसे दोषोंके हेत्वाभास और उत्तराप्रतिपत्तिदो भेद कल्पित कर लिये गये हैं। वादी प्रतिवादियोंके लिये दो ही पर्याप्त हैं। नैयायिकोंने भी अप्रतिपत्तिको निग्रहस्थान के सामान्य लक्षणमें डाल दिया है । पश्चात् उनके भेद, प्रभेद, कर दिये जाते हैं । अतः संक्षेपसे विचार करने पर तो कोई विद्वानके द्वारा मतानुज्ञाकी परीक्षा करना कथमपि समुचित हो सकता है । अन्यथा हमारी परीक्षा ही ठीक है। ननु चाज्ञानमात्रेपि निग्रहेति प्रसज्यते । सर्वज्ञानस्य सर्वेषां सादृश्यानामसंभवात् ॥ २५६ ॥ सत्यमेतदभिप्रेतवस्तुसिद्धिप्रयोगिनोः । ज्ञानस्य यदि नाभावो दोषोन्यस्यार्थसाधने ॥ २५७ ॥ सत्स्वपक्षप्रसिद्धयैव निग्राह्योन्य इति स्थितम् । समासतोनवद्यत्वादन्यथा तदयोगतः ॥ २५८ ॥
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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