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________________ तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके aa.or.narist...........nuar-mistanenarian tartmi निर्दोषसाधनोक्तौ तु तूष्णीभावाद्विनिग्रहः । प्रलापमात्रतो वेति पक्षसिद्धेः स आगतः ॥ २५०॥ ___ यदि नैयायिक यों कहें कि अप्रतिभासे निगृहीत हो रहे पुरुषमें प्रतिमा नहीं है। और पर्यनुयोज्योपेक्षणसे निगृहीत हो रहेमें प्रतिमा विद्यमान है । दूसरी बात यह है कि स्वयं वक्ता अप्रतिमाको उठाता है। और यह पर्यनुयोज्योपेक्षण तो मध्यस्थ सभासदोंकरके उत्थापन करने योग्य है। भाष्यकार कहते हैं कि " एतच्च कस्य पराजय इत्यनुयुक्तया परिषदा वचनीय, न खलु निग्रह प्राप्तः स्वकौपीनं विवृणुयादिति" । अतः हम नैयायिक आश्चर्यपूर्वक कहते हैं कि अप्रतिभासे उस पर्यनुयोज्योपेक्षणका महान् भेद है । वादमें भी इसको कोई वादी या प्रतिवादी यदि उठा देवे तो किसी करके भी वह निग्रहस्थान मनोनुकूल झेठा नहीं जाता है । पक्का जीतनेवाला पुनः पराजित नहीं होना चाहता, पर्यनुयोज्योपेक्षण निग्रहस्थानको उठानेवाला अपना निग्रह पहिले हो चुका, यह अवश्य स्वीकार कर लेता है । निग्रहको प्राप्त हो चुका कोई भी पुरुष इस लोकमें अपने आप अपनी गुल जननइन्द्रिवको नहीं खोल देता है। अपनी जांघ उघाडिये बाप ही मरिये लाज" । इस प्रकार पर्यनुयोज्योपेक्षण उठानेके लिये निगृहीतको बडी आकुलता उपस्थित हो जाती है। तभी तो मध्यस्थोंके ऊपर यह कर्तव्य ( बला ) टाल दिया गया है। जो पण्डित दूसरेके उत्तरकी अप्रतिपत्तिको स्वयं उठा रहा है, वह स्वयं अपने साधनका दोष सहितपना निश्चय से प्रकट करा रहा है । हां, जिस स्थलपर जो उत्तर सम्भव रहा है, उसका वहां कथन नहीं करना तो अप्रतिमा निग्रहस्थान है, यह मानना युक्त है । अन्य प्रकारोंसे निग्रह नहीं हो सकता है । इस प्रकार न्याय शास्त्रोंको जाननेवालोंका मन्तव्य है । इसपर हम जैनोंका यह कहना है कि वादी द्वारा निर्दोष हेतुके कथन कर चुकनेपर प्रतिवादीका चुप रहनेसे तो विशेष रूपसे निग्रह होगा अथवा केवळ व्यर्थ बकवाद करनेसे प्रतिवादीका निग्रह होगा। इस कारण अपने पक्षकी सिद्धि कर देनेसे ही दूसरेका वह निग्रहस्थान होना बाया। कोरा दोष उठा देनेसे अथवा निगृहीतका निग्रह कथन नहीं कर देनेसे यों ही किसीका निग्रह नहीं हो जाता है। हम तो ऐसे न्यायमार्गको अन्याय ही समझते हैं, जहां कि दयामावोंकी हत्या की जाती है । हां, यदि सन्मुख स्थितके निगृहीत हो जानेका जिस पण्डितको सर्वथा ज्ञान नहीं हुआ है, उस पण्डितके ऊपर अज्ञान निग्रहस्थान उठाया जा सकता है । किन्तु हमें तो वह भी अनुचित दीखता है तो भी ज्ञानर्से पर्यनुयोज्योपेक्षणको पृथक् नहीं मानना चाहिये । ___यदप्यभ्यधायि, स्वपक्षदोषाभ्युपगमात्परपक्षे दोषप्रसंगी मतानुज्ञा । यः परेण चोदितं दोषमनुद्धत्य भवतोप्ययं दोष इति ब्रवीति सा मतानुज्ञास्य निग्रहस्थानमिति, तदप्यपरीक्षितमेवेति परीक्ष्यते ।
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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