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________________ तत्वार्थचोकवार्तिके तन्निराकृतिसामर्थ्यशून्ये वादमकुर्वति । पराजयस्ततस्तस्य प्राप्त इत्यपरे विदुः ॥ ९२ ॥ प्रतिकूल कहनेवाले प्रतियोगी मनुष्य के होनेपर भी पुनः समीचीन हेतुका अभाव हो जानेसे सिद्धिका अभाव देखा गया है । और कभी कभी प्रतियोगीका सर्वथा अभाव हो जानेपर भी वह सिद्धिका अभाव देखा गया है । तिस कारण यह सिद्ध होजाता है कि उस प्रतियोगी के निराकरण करने की सामर्थ्य से शून्य होनेपर वादको नहीं करनेवाले मनुष्य के होनेपर उससे उसका पराजय प्राप्त हो जाता है । भावार्थ - दूसरेको अन्यके निराकरणकी सामर्थ्य से रहित कर दिया जाय, वह मनुष्य वाद करने योग्य नहीं रहे, तब उसका पराजय माना जावेगा । इस प्रकार कोई दूसरे विद्वान् अपने मनमें समझ बैठे हैं । अब आचार्य महाराज इनका समाधान करते हैं । ३४२ तत्रेदं चिंत्यते तावत्तन्निराकरणं किमु । निर्मुखीकरणं किं वा वाग्मिस्तत्तत्त्वदूषणम् ॥ ९३ ॥ नात्रादिकल्पना युक्ता परानुग्राहिणां सतां । निर्मुखीकरणावृत्ते बोधिसत्त्वादिवत्कचित् ॥ ९४ ॥ उन पर विद्वानोंके उक्त अभिमतपर अब यह विचार चलाया जाता है कि उन्होंने जो पहिले यह कहा था कि दूसरे करके एकका निराकरण हो जाना ही हमारे यहां पराजय माना गया है । इसमें हमारा यह प्रश्न है कि उसके निराकरणका अर्थ क्या, उसको बोलनेवाले मुखसे रहित ( चुप ) कर देना है ? अथवा क्या सयुक्त वचनोंद्वारा उसके अभीष्ट तत्त्वमें दूषण प्रदान करना है ! बताओ । इन दोनों पक्षोंमेंसे आदिके पक्ष की कल्पना करना तो युक्तिपूर्ण नहीं है। क्योंकि शान्तिप्रेमी विद्वान् माने गये बोधिसत्व आदिक विद्वानोंके समान दूसरोंके ऊपर अनुग्रह करनेवाले सज्जन पुरुषोंकी कहीं भी किसीको चुप करनेके लिये प्रवृत्ति नहीं होती है । अर्थात् - बौद्धों के यहां बोधिसत्त्व आदिक पुरुषोंकी प्रवृत्ति सर्व प्राणियोंके साथ वात्सल्यभाव रखनेवाली स्वीकार की है। उसी प्रकार सर्व कृपालु तत्त्व निर्णायकोंकी प्रवृत्ति प्राणियों के ज्ञान सम्पादनार्थ है । जैसे तैसे किसी भी उपायसे दूसरोंका मुख रोकने ( बन्द ) के लिये नहीं होती है। द्वितीय कल्पनायां तु पक्षसिद्धेः पराजयः । सर्वस्य वचनैस्तत्त्वदूषणे प्रतियोगिनाम् ।। ९५ ।।
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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