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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
पक्षसिद्धिविहीनत्वादेकस्यात्र पराजये । परस्यापि न किं नु स्याज्जयोप्यन्यतरस्य नु ॥ ८७ ॥ तथा चैकस्य युगपत्स्यातां जयपराजयौ । पक्षसिद्धीतरात्मत्वात्तयोः सर्वत्र लोकवत् ॥ ८८ ॥
छह कारिकाओं द्वारा अपर विद्वान् अपने मन्तव्यको दिखलाते हैं कि यहां अपने पक्षकी सिद्धिसे रहित हो जाने के कारण यदि एक ( प्रतिवादी ) का पराजय हो जाना इष्ट कर लिया जायगा तो दूसरे (वादी) का भी पराजय क्यों नहीं हो जावेगा। क्योंकि साधनाभासको कहने वाला वादी और दोषोंको नहीं उठानेवाला प्रतिबादी दोनों ही अपने अपने पक्षकी सिद्धिसे रहित होते हुये भी एक ( वादी ) का जय होना मानोगे तो दोनोंमेंसे बचे हुये अन्य एक ( प्रतिवादी ) का भी जय क्यों नहीं मान लिया जावे ? और तिस प्रकार होनेपर एक ही वादी या प्रतिकादी एक समय में एक साथ जय पराजय दोनों हो जावेंगे । क्योंकि लोकमें जैसे जय पराजयकी व्यवस्था प्रसिद्ध है, उसी प्रकार सभी शास्त्रीय स्थानों में भी स्वपक्षकी सिद्धि कर देनेसे जय हो जाना और पक्षसिद्धि नहीं हो जानेसे पराजय प्राप्ति हो जाना व्यवस्थित है । वे जय और पराजय पक्षसिद्धि और पक्षकी असिद्धिस्वरूप ही तो हैं ।
तदेकस्य परेणेह निराकरणमेव नः ।
पराजयो विचारेषु पक्षासिद्धिस्तु सा क नुः ॥ ८९ ॥ पराजयप्रतिष्ठानमपेक्ष्य प्रतियोगिनां ।
लोके हि दृश्यते याक सिद्धं शास्त्रेपि तादृशम् ॥ ९० ॥
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तिस कारण दूसरे विद्वान् करके एक वादी या प्रतिवादीका निराकरण हो जाना ही हमारे यहां एकका विचारोंमें पराजय माना गया है। ऐसी दशा में किसी एक मनुष्यके पक्षकी वह असिद्धि तो कह रही ? अपने प्रतिकूल हो रहे प्रतियोगी पुरुषोंकी अपेक्षा कर जिस प्रकार कोकमें पराजय प्राप्तिकी प्रतिष्ठा देखी जा रही है। उसी प्रकार शास्त्र में भी पराजय प्रतिष्ठा सिद्ध है । इस विषय में लौकिक मार्ग और शास्त्रीय मार्ग दोनों एकसे हैं ।
सिद्ध्यभावः पुनर्दृष्टः सत्यपि प्रतियोगिनि ।
साधनाभावतः शून्ये सत्यपि च स जातुचित् ॥ ९१ ॥