________________
तत्वायचिन्तामणिः
सिद्धयभावस्तु योगिनामसति प्रतियोगिनि ।
साधनाभावतस्तत्र कथं वादे पराजयः ॥ ९६ ॥
यदि युक्तिपूर्ण वचनोंकरके उसके माने हुये तत्त्वोंमें दूषण देना इस प्रकार दूसरे पक्षकी कल्पना करनेपर तो यह जेनसिद्धान्त ही प्राप्त हो जाता है कि स्वकीय पक्षकी सिद्धि करनेसे और समीचीन वचनों करके दूसरे प्रतिकूल वादियों के माने हुये तत्त्वोंमें दूषण देनेपर ही अन्य सबका पराजय हो सकता है । अर्थात्-अपने पक्षकी सिद्धि और दूसरेके तत्त्वोंमें दोष देनेपर ही अपना जय और दूसरेका पराजय होना व्यवस्थित है । यही अकलंकसिद्धान्त है । आपने जो " सिद्धयमाव पुनदृष्टः सत्यपि प्रतियोगिनि ” इस कारिकाद्वारा कहा था, उसमें हमारा यह कहना है कि प्रतियोगी प्रतिवादीके नहीं होनेपर योग रखनेवाले वादियोंके पास समीचीन साधनका अभाव होजानेसे तो वादीके पक्षकी सिद्धिका अभाव है। उस दशामें वादीके द्वारा प्रतिवादीका बादमें भला पराजय कैसे हो सकता है ? अर्थात्-नहीं ।
यदैव वादिनोः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहः । राजन्वति सदेकस्य पक्षासिद्धिस्तथैव हि ॥ ९७ ॥ सा तत्र वादिना सम्यक् साधनोक्तेर्विभाव्यते । तूष्णीभावाच नान्यत्र नान्यदेत्यकलंकवाक् ॥ ९८ ॥
जिस ही काळमें समुचित राजाके सभापति होनेपर समीचीन राजा, प्रजासे, युक्त हो रहे देशमें वादी और प्रतिवादीके पक्ष और प्रतिपक्षका परिग्रह हो रहा है। वहां एक वादीके समीचीन पक्षकी सिद्धि हो जानेपर उसी समय दूसरे प्रतिवादीका तिस ही प्रकार पक्षं असिद्ध हो जाता है, ऐसा नियम है । उस अवसरपर वादीके द्वारा समीचीन साधनका कथन करनेसे और प्रतिवादीके चुप हो जानेसे वह प्रतिवादीके पक्षकी असिद्धि विचार ली जाती है। अन्य स्थलोंमें और अन्य कालोंमें पक्षकी बसिद्धि नहीं, इस प्रकार श्री अकलंकदेव स्वामीका निर्दोष सिद्धान्त वाक्य है।
तूष्णींभावोथवा दोषानासक्तिः सत्यसाधने ।
वादिनोक्ते परस्येष्टा पक्षसिद्धिर्न चान्यथा ॥ ९९ ॥ ___वादीके द्वारा कहे गये सत्य हेतुमें प्रतिवादीका चुप रह जाना अथवा सत्य हेतुमें दोषोंका प्रसंग नहीं उठाना ही दूसरे वादीकी पक्ष सिद्धि इष्ट की गयी है । अन्य प्रकारोंसे कोई पक्षसिद्धिकी व्यवस्था नहीं मानी गयी है।