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________________ ३१५ तत्त्वार्यशोकवार्तिके कस्य चित्तत्त्वसंसिध्यप्रतिक्षेपो निराकृतेः । कीर्तिः पराजयोवश्यमकीर्तिदिति स्थितम् ॥ १० ॥ यों माननेपर किसी भी वादी या प्रतिवादीके अभीष्ट तत्त्वोंकी भळे प्रकार सिद्धि करनेमें कोई आक्षेप नहीं पाता है। दूसरेके पक्षका निराकरण करनेसे एककी यशस्कीर्ति होती है, और दूसरेका पराजय होता है, जो कि अवश्य ही अपकीर्तिको करनेवाला है। अतः स्वपक्षकी सिद्धि करना और परपक्ष का निराकरण करना ही जयका कारण है । इस कर्त्तव्यको नहीं करने माळे वादी या प्रतिवादीका निग्रहस्थान हो जाता है । यह सिद्धान्त व्यवस्थित हुआ। असाधनांगवचनमदोषोद्भावनं द्वयोः। न युक्तं निग्रहस्थानं संधाहान्यादिवत्ततः ॥ १०१॥ तिस कारणसे यह बात आई कि बौद्धोंके द्वारा माना गया असाधनांगवचन और बदोषोद्भावन दोनोंका निग्रहस्थान यह उनका कथन युक्त नहीं है। जैसे कि नैयायिकों द्वारा माने गये प्रतिज्ञाहानि, प्रतिज्ञान्तर आदिक निग्रह स्थानोंका उठाया जाना समुचित नहीं है । भावार्थ-वादीको अपने पक्षसिद्धिके अंगोंका कथन करना आवश्यक है । यदि वादी साधनके अंगोंको नहीं कह रहा है, अथवा असाधनके अंगोंको कह रहा है, तो वह वादीका निग्रहस्थान है तथा प्रतिवादीका कार्य वादीके हेतुओंमें दोष उत्थापन करना है । यदि प्रतिवादी अपने कर्त्तव्यसे विमुख होकर दोषोंको नहीं उठा रहा है, या नहीं लागू होनेवाले कुदोषोंको उठा रहा है, तो यह प्रतिवादीका निग्रह स्थान है । अब आचार्य कहते हैं कि यह बौद्धों द्वारा मानी गवी निग्रहस्थानकी व्यवस्था किसी प्रकार प्रशस्त नहीं है। जैसे कि नैयाथिकोंके निबृहस्थानोंकी व्यवस्था ठीक नहीं है। के पुनस्ते प्रतिज्ञाहान्यादय इमे कथ्यंते ? प्रतिज्ञाहानिः, प्रतिज्ञांतरं, प्रतिज्ञाविरोषः, प्रतिज्ञासंन्यासः, हेत्वंतरं,अधोतरं, निरर्थक, अविज्ञाताथै, अपार्थकं, अप्राप्तकालं, पुनरुक्तं, अननुभाषणं, अज्ञानं, अप्रतिभा, पर्यनुयोग्यानुपेक्षणं, निरनुयोज्यानुयोगः, विक्षेपा, मतानुज्ञा, न्यूनं, अधिकं, अपसिद्धान्ता, हेत्वाभासः, छलं, जातिरिति । तत्र प्रतिज्ञाहानिनिग्रहस्थानं कथमयुक्तमित्याह । किसी विनित शिष्यका प्रश्न है कि वे पुनः नैयायिकों द्वारा कल्पित किये गये प्रतिज्ञाहानि आदिक निग्रहस्थान कौनसे है ! इसके उत्तरमें आचार्य महाराज कहते हैं कि वे निग्रहस्थान हमारे द्वारा अनुवाद रूपसे वे कहे जा रहे हैं । सो सुनो, प्रतिज्ञाहानि १ प्रतिज्ञान्तर २ प्रतिशाविरोध ३ प्रतिज्ञासन्यास ४ हेत्वन्तर ५ अर्थान्तर ६ निरर्थकं ७ अविज्ञातार्थ ८ अपार्थक ९
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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