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तत्वार्थ लोकवार्तिके
बौद्ध और सांख्यों विपर्यय कल्पना है। तथा उन द्रव्य और पर्याय दोनोंसे तदात्मक हो रहे वस्तु होनेपर फिर आग्रहवश उन द्रव्यपर्यायोंके भेदको बकते रहना वैशेषिकका विपर्यय ज्ञान हैं। पदार्थोंका शब्दोंद्वारा निरूपण नहीं हो पाता है । अतः सम्पूर्ण तस्त्र अवाच्य है । यह वक्तव्य एकान्तका विपर्यय भी किन्हीं बौद्धों में छा रहा है। ये सब आहार्य कुश्रुतज्ञान है । उत्पादव्ययवादश्च धौव्ये तदवलम्बनम् ।
जन्मप्रध्वंसयोरेवं प्रतिवस्तु प्रबुद्धयताम् ॥
१५ ॥
द्रव्यकी अपेक्षा या काळान्तरस्थायी स्थूल पर्यायकी अपेक्षा पदार्थोंका धुत्रपना होते सन्ते भी के उत्पाद और व्ययके एकान्तका ही पक्ष पकडे रहना क्षणिक एकान्तरूप विपर्यय है । तथा इसके विपरीत दूसरा एकान्त यों है कि पदार्थोंके उत्पाद और व्ययकी प्रत्यक्षद्वारा सिद्ध होते सन्ते भी उस धाव्यका सहारा लेकर सर्वथा पदार्थोंको नित्य ही समझते रहना विपर्यय ज्ञान है । इस प्रकार प्रत्येक वस्तुओं में विपर्यय ज्ञानकी व्यवस्था समझ लेनी चाहिए । एकान्तवादी विद्वान् अपने अपने सिद्धान्त अनुसार सम्पूर्ण पदार्थोंमें विपरीत अभिनिवेश किये हुए आहाय्य विपर्यय से प्रहप्रस्त हो रहे हैं ।
सति तावत्कास्र्त्स्न्येनैकदेशेन च विपर्ययोऽस्ति तत्र कात्स्न्येन शून्यवादः स्वरूपद्रव्यक्षेत्रकालतः, सर्वस्य सत्त्वेन प्रमाणसिद्धत्वात् । विशेषतस्तु सति ग्राह्यग्राहकभावे कार्यकार णभावे च वाच्यवाचकभावादौ च तदसच्चवचनम् । तत्र संविदद्वैतस्य वावलम्बनेन सौग - तस्य, पुरुषाद्वैतस्यालम्बनेन ब्रह्मवादिनः, शद्बाद्वैतस्याश्रयेण वैयाकरणस्येति प्रत्येयं । विपर्ययत्वं तु तस्य ग्राह्यग्राहकभावादीनां प्रतीतिसिद्धं तद्वचनात् ।
प्रथम ही हम यह समझाते हैं कि अनेक वादियोंके यहां नाना प्रकारके विपर्ययज्ञान माने जा रहे हैं । विद्यमान हो रहे पदार्थों में कोई तो परिपूर्ण रूपसे विपर्ययज्ञान मानते हैं और कोई विद्यमान हो रहे पदार्थोंमें एकदेश करके विपर्यय ज्ञान मान बैठे हैं । उनमें परिपूर्ण रूप से विपर्यय मानना तो शून्यवाद है । क्योंकि अपने स्वरूप हो रहे भाव, द्रव्य, क्षेत्र, काळसे अपने करके सम्पूर्ण पदार्थों की प्रमाणोंसे सिद्धि हो रही है। अतः सभी पदार्थोंको स्वीकार नहीं करना यह तत्व उपलत्रवादी या शून्यवादी प्राज्ञोंका पूर्णरूपसे होनेवाला विपर्यय है । एक देशसे या विशेषरूप से तो विपर्यय यों है कि पदार्थों में ग्राह्यग्राहक भाव और कार्यकारण भाव तथा वाध्यवाचकभाव आधारआधेयभाव, वध्यघातक भाव, आदि सम्बन्धों के होनेपर भी उन प्राप्रकभाव आदिका असत्त्व कहना विपर्यय है । उनमें सम्वेदनाद्वैतका आलम्बन करने से बौद्धको विपर्ययज्ञान हो रहा है। और पुरुषाद्वैतका सहारा लेनेसे ब्रह्मवादीके विपर्यय हो गया है । तथा द्वाद्वैतका आश्रय पकड केनेसे वैयाकरणके वैसा विपर्यय हो गया है, जिससे कि वे