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________________ तत्वार्थचोकवार्तिके ४२६ हैं । सपक्ष में वृत्ति नहीं होते हुये भी विपक्षव्यावृत्ति द्वारा व्याप्तिको बनाकर शद्ववसे शद्वका अनित्यपना साधा जा सकता है । और पक्षके एक देशमें भी व्याप्ति बनायी जा सकती है । उसी प्रकार पक्षके एक देशमें व्याप्तिको बनाकर प्रमेयत्व हेतु भी सद्धेतु बन सकता है । नैयायिकों के यहां अस्मात् पदादयमर्थे बोद्धव्य इति ईश्वरेच्छा संकेतरूपा शक्ति इस ढंगसे शब्दोंकी शक्तिको मानकर सम्पूर्ण पदार्थोको अभिधान करने योग्य मान लिया है। नैयायिकोंने ईश्वरको शक्तिमान् माना है । कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुं शक्यः । किन्तु जैन सिद्धान्त अनुसार सम्पूर्ण पदार्थोंका अनन्तानन्तव भाग शद्वों द्वारा वाध्य माना है । शद्व संख्याते ही हैं। अतः संकेत प्रहण द्वारा वे संख्यात अर्थोको ही कह सकते हैं। हां, अविनाभावया अभेद वृत्तिसे भले ही अधिक अर्थको कह दें। सच बात तो यह है कि असंख्याते अर्थोकी प्रतिपत्ति तो शद्बों द्वारा नहीं होकर श्रुतज्ञानावरणके क्षयोपशमसे होती है। हां, उस ज्ञानभण्डारकी ताली ( कुंजी ) प्रतिपादक के शद्ब ही हैं। तभी तो जैन विद्वान् भगवान अर्हन्तपरमेष्ठी ज्ञान, वीर्य, सुख दर्शनको अनन्त ही मानते हैं । सर्वज्ञ मी शों द्वारा परिमित अर्थोको ही कहते हैं । सम्पूर्ण पदार्थोंको नहीं कह सकते | यदि नैयायिक ईश्वर के सर्व शक्तियां मानते हैं, तो क्या ईश्वर आकाशमें रुपया, जड घटमें ज्ञानका समवाय करा सकते हैं ? यानी कभी नहीं । अतः सर्व शक्तिमत्ता की कोरी श्रद्धा है ? अभिषेयपन और प्रमेयपनकी समन्याप्तिको इम इष्ट नहीं करते हैं । कहीं कहीं अनैकांतिकके संदिग्ध अनैकान्तिक और निश्चित अनेकान्तिक दो भेद माने गये | नैयायिकोंने दूसरा हेत्वाभास " सिद्धान्तमम्युपेत्य तद्विरोधी विरुद्धः " सिद्धान्तको स्वीकार कर उस साध्यसे विरुद्ध हो रहे धर्मके साथ व्याप्ति रखनेवाला हेतु विरुद्ध हेत्वाभास माना है । जैसे कि यह वन्हिमान है, सरोवरपना होनेसे । यहां वन्हिसे विरुद्ध जलसहितपन के साथ व्याप्ति रखनेवाला होनेसे हृदत्व हेतु विरुद्ध है । तीसरा हेत्वाभास गौतमसूत्र " यस्मात् प्रकरण चिन्तासनिर्णयार्थमपदिष्टः प्रकरणसमः " जिनका निश्चय नहीं हो चुका इसी कारण विचारमें प्राप्त हो रहे पक्ष और प्रतिपक्ष यहां प्रकरण माने गये हैं, उस प्रकरणकी चिन्ता करना यानी विचारसे प्रारम्भ कर निर्णयसे पहिलेतक परीक्षा करना उसके निर्णयके लिये प्रयुक्त किया गया प्रकरणसम हेत्वाभास है । जैसे कि पर्वत अग्निसे रहित है, पाषाणका विकार होनेसे। इस हेतुका पर्वत अग्निवाला है, धूम होनेसे, यों प्रतिपक्षसाधक हेतु खडा हुआ है । अतः पाषाणमयत्व हेतु सत्प्रतिपक्ष है । चौथा हेत्वाभास " साध्याविशिष्टः साध्यत्वात् साध्यसमः | पर्वतो हिमान् हिमवात 'हदो वन्द्विमान् धूमत्वात् ' कांचनमयो पर्वतो वह्निमान् इत्यादिक साध्यसम, स्वरूपासिद्ध आश्रयासिद्ध व्याप्यत्वासिद्ध ये सब इसी असिद्ध के प्रकार हैं। पांचवा हेत्वाभास " कालात्ययापदिष्टः काळातीतः " साधन का अभाव हो जानेपर प्रयुक्त किया गया हेतु कालात्ययापदिष्ट है । जैसे कि आग शीतल है, कृतक होनेसे । यहां प्रत्यक्ष बाधित हो जानेसे कृतकत्व हेतु बाधित हेत्वाभास है । इस ढंगसे पूर्वमें पांच हेत्वाभास कहे गये हैं । निग्रहस्थानोंके आधिक्यको प्राप्त कर रहे अन्य विद्वानोंने "" I
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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