SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 437
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्वार्थचिन्तामणिः स्थानमाव इति । त इमे प्रमाणादयः पदार्थी उद्दिष्टा लक्षिता, परीक्षिताश्चेति" । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कहे हुये उन हेत्वाभासोंमें भी ग्रन्थकारको यह विशेष कहना है, सो सुनिये। हेत्वाभासाश्च योगोक्ताः पंच पूर्वमुदाहृताः। सप्तधान्यैः समाख्याता निग्रहाधिकतां गतः ॥ २७३ ॥ प्रमाण, आदि सोलह पदार्थोके सामान्य रूपसे लक्षण करनेके अवसरपर नैयायिकके द्वारा पांच हेत्वाभास पूर्वमें कहे जा चुके हैं । भाष्यकार और वृत्तिकार द्वारा उनके उदाहरण भी दिये जा चुके हैं । प्रथम ही पांच हेत्वाभासोंका उद्देश्य यों किया है कि " सव्यभिचारविरुद्धप्रकरण समसाध्यसमातीतकाला हेत्वाभासाः ” उनमें से " अनेकान्तिकः सव्यभिचारः " अनैकान्तिक दोषको सव्यर्मिचार कहा गया है । जैसे कि शब्द नित्य है, स्पर्शरहित होनेसे, यहां बुद्धि, संयोग, चलना आदि अनित्योंमें भी हेतुके ठहर जानेसे नित्यपना भी एक अन्त ( धर्म ) है । और अनित्यपना भी एक धर्म है । एक ही अन्तमें जो हेतु अविनाभाव रूपसे सहचरित रहता है, वह ऐकान्तिक है। उसका विपरीत होनेसे दोनों अन्तोमें व्याप रहा अनेकान्तिक दोष है । व्यभिचारी हेत्वामासके साधारण, असाधारण, अनुपसंहारी ये तीन भेद माने गये हैं । " यः सपक्षे विपक्षे च भवेत् साधरणस्तु सः" जो हेतु सपक्ष विपक्ष दोनोंमें रह जाता है वह साधारण है । जैसे कि घट अनित्य है, प्रमेय होनेसे, यहां प्रमेयत्व हेतु अनित्य पुस्तक, वस्त्र, मीठा, खट्टा, चलना, घूमना आदि सपथोंमें ठहर रहा है। यह हेतुका गुण है किन्तु नित्य हो रहे आकाश, आत्मा, परमाणु आदि विपक्षोंमें भी रह जाता है। विपक्षसे मिले रहना भारी दोष है। अतः प्रमेयत्व हेतु साधारण हेत्वामास है।" यस्तुभयस्माद् व्यावृत्तः स स्वसाधारणो मतः " और जो हेतु सपक्ष विपक्ष दोनोंमें नहीं ठहर पाता है, वह असाधारण है । जैसे कि शब्द अनित्य है, शद्बपना होनेसे, यहां अनित्य घट, पट बादि सपक्षों में भी शद्वत्व नहीं रहता है । यह छोटासा दोष है तथा आत्मा आदि विपक्षों में भी शब्दत्व हेतु नहीं वर्तता है । भले ही यह गुण है। अतः शद्वत्व हेतु असाधारण हेत्वाभास है । " तथैवानुपसंहारी केवलान्वयिपक्षकः " व्यतिरेक नहीं पाया जाकर जिसका केवल अन्वय ही वर्तता है, उसको पक्ष या साध्य बनाकर जिस अनुमानमें हेतु दिये जाते हैं, वे हेतु अनुपसंहार हेत्वाभास हैं। जैसे कि सम्पूर्ण पदार्थ शवों द्वारा कथन करने योग्य है, प्रमेय होनेसे, यहां सबको पक्षकोटिमें लेनेसे " हेतुमन्निष्ठात्मन्ताभावाप्रतियोगिसाध्यसामानाधिकरण्य" स्वरूप अन्वय ब्याप्ति को ग्रहण करनेके लिये कोई स्थळ ( सपक्ष ) अवशिष्ट नहीं रह जाता है। या केवलान्वयीको साध्य बनानेपर · साध्यामावव्यापकीभूताभावप्रतियोगित्वरूप व्यतिरेक व्याप्तिके नहीं बननेसे अनुमिति नहीं हो पाती है। कोई नैयायिक असाधारण और अनुपसंहारीको हेवामास नहीं मानते 64
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy